घांची जाति का उदभव क्षत्रिय जाति से हुआ है इसलिये घांची समाज को क्षत्रिय घांची समाज के नाम से भी जाना जाता है इसके पीछे एक एतिहासिक कहानी है कि पाटण के राजा जयसिंह सिद्धराज सोलंकी के नवलखा बाग में रोज रात को देवलोक से परियां पुष्प चोरी करके ले जाती थी जिस पर पंडितों ने सलाह दी की देवलोक में बैंगन का पौधा अपवित्र माना जाता है इसलिये फुलों के पास में बैंगन का पौधा लगा देने से परियां पुष्प चोरी नहीं कर सकेगी।राजा ने ऐसा ही किया तो एक परी के बैंगन का पौधा टच हो जाने से वो वापस इन्द्रलोक नहीं जा सकी उसने राजा को कहा कि तुम विविध धर्म पुन्य मेरे नाम से करो व पूनम एकादशी के उपवास करो तो मैं पाप से निवृत होकर वापस देवलोक जा सकती हुं राजा ने ऐसा ही किया तथा परी जब वापस जाने लगी तो राजा ने भी देवलोक की यात्रा करने की इच्छा प्रकट की इस पर परी ने इन्द्र से अनुमति लेकर राजा को सपने में देवलोक की यात्रा करवायी वंहा स्वर्ग में एक विशाल शिव मंदिर रूद्रमहालय था जिसका नक्शा राजा को पंसद आ गया उसने स्वपन से जाग कर अपने कारिगरों से इस मंदिर निमार्ण का पूछा तो पता चला कि ऐसा मंदिर 24 वर्ष में बन सकता है परन्तु ज्योतीष्यिों ने राजा की आयु 12 वर्ष ही शेष बतायी थी इस पर राजा ने रात व दिन दोनों समय निमार्ण करके मंदिर 12 वर्ष में ही बनाने की आज्ञा दी।उस समय बिजली नहीं थी तब मशालों से रात में काम होता था व मशालें तेल से जलती थी तथा तेली रात दिन काम करके दुखी थे । तेली भाग न जावे इसकी पहरेदारी के लिये विभिन्न गोत्रों के 173 सरदारों की टीम लगी थी परन्तु तेलियों ने चालाकी से इनको दावत में बुलाकर नशा दे दिया जिससे ये रात को सो गये व तेली भाग निकले इस पर राजा इन पहरेदारों पर कुपित हुआ तथा इनको तेलियों के स्थान पर काम करने की आज्ञा दे दी।इन सरदारों ने तेली का काम करके राजा से इनाम लेने के लालच में तेली के कपडे पहन कर राजा की सभा में पहुचें तो अन्य सरदारों ने इनका उपहास किया जिससे ये नाराज होकर राजा जयसिंह का राज्य छोड कर आबू क्षत्र मे आ गये तथा घांची कहलाये इसका अर्थ हैः-
घाः- से घाणी चलाने वाले।
चीः- राजा जयसिंह की चिन्ता दूर करने से घाणी का घा चिन्ता का ची मिलकर घांची कहलाये।