दृढ़ संकल्प एवं इच्छा शक्ति के द्वारा दुष्कर कार्य भी सफलता पूर्वक सम्पन्न हो सकते है। परिस्थितियाँ विपरीत होने पर भी कार्य के प्रति निष्ठा । लगन एवं सत्य का मार्ग अपनाकर श्रेष्ठतम कार्य सहजतापूर्वक किया जा सकता है । निसंदेह हर समय, युग काल में चमत्कार को ही नमस्कार किया जाता है किन्तु सच्चे एवं ईश्वर के साथ आध्यात्मिक लगाव जिस मनुष्य में हो जाता है उसके जीवन में चमत्कार होते ही रहते हैं । इसे 'चाहे आप संयोग माने अथवा दैवयोग । यह जीवन में स्वाभाविक रूप से घटती है और मनुष्य उसे ईश्वरेच्छा, कृपा मानकर स्वीकारते हुए अपने सत्कार्य में ही अपना जीवन अर्पित कर देता है । विश्व वंदनीय कल्याणी माता कर्मा बाई का जीवन भी इसी क्रम में अप्रतिम उदाहरण है।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपनी अजेयता का परिचय देने वाली झांसी की धरती प्रणम्य है । जिसने ऐसे अनेक समाज रत्न भारत को प्रदान किये जिससे एक समाज विशेष नहीं अपितु सम्पूर्ण मानव समाज गौरवांवित हुआ है । दसवीं शदी में झांसी नगर में सुप्रसिद्ध तैलकार परिवार रहता था । धार्मिक निष्ठावान सत्कार्य पर अग्रसर दयालु व्यापारी रामसाह एवं उनकी पत्नी कमला बाई । वे अपने मिलनसार एवं सहयोगी स्वभाव के कारण, स्वतः प्रसिद्ध हो गये थे । नित्यप्रति ईश्वराधना एवं ईमानदारी पूर्ण व्यवसाय तथा जरूरत मंद को सहायता यही कार्य थे । दोनों ने एकादशी व्रत का संकल्प किया था । प्रतिदिन भगवान कृष्णाराधना के पश्चात ही पारणा करते थे । समीपस्थ बेतवा नदी में प्रतिदिन स्नान एवं साधु संतों की सेवा उनकी धार्मिक आस्था की अभिव्यक्ति थी। एक दिन नदी तट पर ध्यानस्थ तपस्वी ने उन्हें आशीष दिया । रात्रि में स्वप्न आया । दूसरे दिवस एक शुभ वस्त्र धारिणी वृद्ध महिला ने भिक्षा की याचना की । ऐसा माना जाता है कि उसी के आशीर्वाद से तैलकार दम्पत्ति को एक मात्र कन्या रत्न की प्राप्ति हुई । तदनुसार चैत्रकृष्णपक्ष पापमोचनी एकादशी सं. 1073 को कन्या का जन्म हुआ । सुकर्म का परिणाम सत्कार्य का फल सत्य कर्मा बाई के नाम से आशीष मिला । सच्ची भक्ति या देवाराधना सुफलदायी होता है । कर्माबाई की शिक्षा घर पर ही हुई जीवन का व्यावहारिक ज्ञान घर पर ही मिला । माता-पिता के धार्मिक कार्यों में हाथ बटाना धार्मिक कथा श्रवण करना दैनिक कार्य बना ।
झांसी में यह प्रसिद्ध है कि कर्माबाई के जीवन में प्रथम बार यह चमत्कारिक घटना हुई । दसवर्षीय कर्मा समीपस्थ तालाब में स्नान के लिए गई थी अपनी सहेलियों के साथ । बाल सुलभ क्रीड़ा से एक बालिका गहरे पानी में डूब गयी । कर्मा बड़े ही साहस के साथ स्वयं तालाब में कूद पड़ी और बच्ची को बाहर निकाला । पेट से पानी निकालने का सभी ने प्रयास किया । किन्तु कर्मा उस निष्चेष्ट शरीर को गोद में लिटाकर चुपचाप निहारने लगी । सभी निराश थे । किन्तु मौन कर्मा बाई गोद में लिटाये अपनी सखी के साथ एकटक ईश्वराधना में लीन रही । संयोग कहे कि चमत्कार पांच घंटे के पश्चात बालिका को होश आ गया । वह जीवित हो गयी । जीवन में प्रथम बार यह आलौकिक घड़ी आयी कर्मा के जयजयकार से पूरा गाँव मुहल्ला गुंजित हुआ ।
एक दूसरी घटना भी आसपास के लोगों को मुँह जबानी याद है । पड़ोस में ही सखी, कन्या नंदिनी रहती थी । उनके माता-पिता किसी कार्य से बाहर जा रहे थे । दूध बेचने का दायित्व उस पर आ गया । परेशान होकर उसने सखी कर्मा से सहयोग मांगा । कर्मा ने सहयोग किया, आत्मविश्वास का साहस का । घर में ही स्थित नीम वृक्ष की पतली टहनी से गोलाकृति बनाई उसे बोलचाल में गुड़री कहते है और उसे नंदिनी के सिर पर रखकर कहा, इसमें दूध की मटकी रखना । उस बालिका ने सर्वत्र घूम-घूम कर दूध बिक्री की । अधिक रूपया अर्जित की । उसमें कर्मा के प्रति असीम आत्मीयता आई । वह चमत्कारी गुडरी घरोहर के रूप में कर्मा, बाई के पास ही रखी गयी।
बचपन में ही बालिका कर्माबाई ने माता-पिता के कुछ समय तक अन्यत्र जाने पर भगवान श्री कृष्ण का भोग उसी व्यवस्था से लगाती थी जैसा उसके माता-पिता पूर्ण किया करते ते । वास्तव में धार्मिक संस्कार तो बचपन से ही कर्मा को विरासत में मिले थे । - युवावस्था में समीपस्थ नरवरगढ़ के संपन्न व्यापारी के पुत्र चतुर्भुज साह से विवाह हुआ । वे धनिक तैलिक व्यापारी थे उनका व्यापारिक संबंध आसपास के अनेक व्यापारियों से था । अतः उन्होंने सार्वजनिक हितार्थ ठहरने के लिए, भोजन पानी की व्यवस्था के साथ धर्मशालाये एवं सराय बनवाये । जनहित कार्यों में निरंतर सहयोग की । जीवन शिक्षा कर्मा को पति से प्राप्त हुई । व्यापारिक कार्यों में व्यवस्तता के कारण वे कर्मा के साथ सतत धार्मिक कार्यों में लिप्त नहीं रह सकते थे । किन्तु भगवान कृष्ण के प्रति भक्ति में लीन कर्मा को उन्होंने छूट दे दी थी कि वे पति सेवा से अधिक ईश्वर कृष्ण भक्ति में लगी रहे । अन्ततः कर्मा ने अपनी पति सेवा एवं ईश्वर भक्ति के बल पर पति को भी धार्मिक बना लिया । निसंदेह वैभव में वृद्धि सार्वजनिक रचनात्मक कार्य में ख्याति एवं मिलनसार स्वभाव के कारण व्यापारिक प्रतिस्पर्धा बढ़ी । स्वाभाविक है कि कुछ लोगों को ईष्या जलन होने लगी । वे कर्माबाई के परिवार को पराभूत करने के अवसर ढूढने लगे ।
यह एक संयोग किंवा दुर्योग ही कहा जा सकता है कि नरवर के राजा का हाथी रोग ग्रस्त हो गया । उसे असह्य खुजली हो गयी । इलाज किया गया परन्तु सभी निष्फल । अतः ईष्यालु व्यापारियों ने राजा के कान भरे एवं सलाह दी की क्वाथ तैलस्नानमौषधम् की सिद्धि हेतु रोगी हाथी को तैल स्नान कराया जाये । व्याधि के निवारणार्थ सूख-चूके मोतिया ताल, बड़ा कुण्ड को तेल से भरा जाये । राजाज्ञा हुई नरवर के सभी तैलिक परिवार प्रतिदिन एकत्रित तेल को उस विशाल कुण्ड में संचित करें । वे अब किसी के लिए तेल न बेच सकते थे और नहीं अन्यत्र ले जा सकते थे, वहीं तेल संचय के बाद उन्हें रूपया मूल्य भी नहीं मिलता था । इस अन्यायपूर्ण क्रूर आदेश ने सभी तेलियों की आर्थिक स्थिति दयनीय कर दी, उधर कुण्ड भी नहीं भरा था । सभी ने चतुर्भुज को देखा । चतुर्भुज ने पूर्ण आशा एवं विश्वास के साथ कर्मा की ओर मानो कह रहे हो कि अब हमारा उद्धार कैसे होगा ? तुम्हारी तपस्या का हमें क्या फल मिला । किन्तु कर्मा के हृदय ने कृष्ण को पुकारा प्रभु रक्षा कीजिये । राह बताइये संकट से उबारिये । ऐसी मान्यता है कि इसी समय आकाशवाणी हुई थी कि अब तुम स्वयं तेलपात्र में भरकर कुण्ड में डालो । तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी । आकाशवाणी सही मायने में आत्मा एवं परमात्मा का एकात्म संवाद है । जिसे पुण्यात्मा ही सुन सकता है, समझ सकता है । इसे सपनादेश जैसा माने अथवा संयोग मात्र । कहा जाता है। कि कर्माबाई ने इस समय उसी नीम की गुड़री का उपयोग किया, जिसका प्रभाव सखी कन्या नंदिनी के साथ देख चुकी थी । कर्मा जी के साथ महिलाओं की टोली, तेलपात्र लिए हुए चली, कुण्ड में तेल समर्पण के लिए । आश्चर्य हुआ । कुण्ड अब लबालब भर चुका था । पुनः कम की जय जयकार । तभी कर्मा का नेतृत्व जागा । सभी की भलाई का आात्मिक विचार आया । शोषित पीड़ित लोगों के हितार्थ संकल्प किया । इस अन्यायी शासक के क्षेत्र में कोई तैलकार निवास नहीं करेंगे । समग्र तेलियों का नखरगढ़ से कर्मा एवं चतुर्भुज साह के नेतृत्व में राजस्थान की ओर पलायन एवं व्यवस्थापन कार्य किया । आज भी नखरगढ़ इलाके में कोई भी तेली, तैलकार तेल व्यापारी निवास नहीं करता है । राजस्थान के इस क्षेत्र में कर्मा ने अपने समस्त तैलिक परिवारों की व्यवस्था की । समृद्ध तो वे थे ही । पुनः वैभव प्राप्ति में अधिक समय नही लगा । यह अन्याय के विरूद्ध न्याय के समर्थन में प्रथम विजय थी । उपेक्षितों को सम्मान मिला था । संगठन का फल मिला था । हाथी की व्याधि तो एक बहाना था।
अब कर्मा बाई का उत्तर दायित्व बढ़ चुका था । समाज सेवा पतिसेवा एकमात्र पुत्र को लालन पालन और श्री कृष्ण की निरंतर भक्ति । किन्तु चक्रकार पंक्ति इव गच्छति भाग्य पंक्ति की तरह सुख-दुख-सुख का चक्र निरंतर गतिमान होता है । अचानक क्षणिक बिमारी से पतिदेव का स्वर्गवास हो गया । पति शोक से व्याकुल कर्मा ने सती होने का निर्णय लिया किन्तु ध्यानस्थ कर्मा को पुनः ईश्वरादेश सुनाई दिया । कर्मा तुम गर्भवती हो इस अवस्था में सती होना पाप है । तुम मेरी प्रतीक्षा करो । धैर्य रखो । मैं तुम्हें पुरीधाम में दर्शन दूंगा । दिन-रात इसी अवस्था में भ्रमित रहती वह । कर्मा बाई ने आत्मा की आवाज से बच्चों के प्रारंभिक लालन पालन की व्यवस्था की और गृह त्याग दिया । आँचल में मात्र चाँवल एवं दाल के मुट्ठी भर अन्न । निरंतर आगे बढ़ना । रात्रि को कहीं विश्राम एवं दिन को तेजगति से पुरी की ओर । रास्ता जानती नहीं दुर्गम । भूख प्यास से व्यथित कर्मा जंगल में मिले पत्ते कंदमूल का सेवन करते पुरी की ओर । कर्मा मानों उनमत्त हो गयी हो । थकी हारी कर्मा ने पुनः प्रभु को टेर लगाई । एक रात्रि वृक्ष तले अर्धनिंद्रा में कर्मा का प्रलाप प्रभु से संवाद । और दूसरे दिन प्रातः देवस्थल में । पूछने पर ज्ञात हुआ । जगन्नाथ पुरी यही है । कर्मा को मानों सब कुछ मिल गये । दौड़ी अपने कृष्ण की ओर । गंदे चिथड़े कपड़े विक्षिप्त सा देह, कृष्ण विलाप । पुजारियों ने दरवाजे पर ही रोक दिया । अनुनय निवेदन काम नहीं आया । धक्के मारकर द्वार से भगा दिया । लहुलुहान हुई निराश कर्मा समुद्र की ओर । कृष्ण दर्शन दो । आपने कहा था । दर्शन दो कृष्ण, कृष्ण । जगन्नाथ पुरीक्षेत्र में इस प्रसंग पर दो किंवदन्ति प्रचलित है । प्रथम यह कि समुद्र तट में कर्माबाई को कृष्ण ने छोटे बच्चे के रूप में दर्शन दिये । दूसरा मंदिर में स्थापित प्रतिमा ही समुद्र तट में विराजित हो गई । दोनों कथानकों में चाहे सत्यांश जितना भी हो यह सत्य है कि कर्मा समुद्रतट में ही रहकर नित्य ही बालक कृष्ण को खिचड़ी का भोग लगाती थी । उनका एक ही कार्य होता था । प्रातः उठकर खिचड़ी पकाना बालक कृष्ण की प्रतीक्षा करना आने पर भोग लगाना कालान्तर में स्नानादि दैनिक कार्य करना । राजस्थानी । संत गोस्वामी नाभाजी ने कहा कि हुती एक माई ताको करमा सुनाम जानि बिना रीति भांति भोग खिचरी लगावही, जगन्नाथ स्वामी आप भोजन करत नीकै, जित लागै भोग तामे यह अति भावही । (गोस्वामी नाभाजी कृत भक्तमाल पृष्ठ 246 टीका कवित 597 में ।)
कालान्तर में किसी संत के द्वारा दैनिक कार्य निवृत्त एवं स्नानादि के बाद खिचड़ी पकाने का निर्देश मिलने से कर्मा बाई ने ऐसा ही किया । एक बार पूजा में विलम्ब के कारण शीघ्रता से भगवान का अपने मंदिर आगमन एवं मुख्य पुजारी द्वारा प्रभु के मुँह में खिचड़ी देखकर अचरज हुआ । राजा को बताया । राजा को भान हुआ । अचंभित पुरी के राजा ने भक्त कर्मा को सम्मान सहित पुरी धाम वापस बुलाया । कृशकाय तपस्वनी कर्माबाई ने जगन्नाथ जी के समक्ष ईश्वरदर्शन करते हुए शरीर त्याग दिया । धन्य हो कर्माबाई । जगन्नाथ पुरीधाम में सर्वत्र जयजयकार हुआ | भक्त एवं भगवान का एकाकार हुआ समुद्र तट में वह स्थान सुरक्षित किया गया । स्मारक बना तथा कालान्तर में माँ कर्मा की खिचड़ी का ही प्रथम भोग भगवान जगन्नाथ को लगाया जाता है । यह परंपरा अभी तक है । खिचरी करमा याई केरी । चलै पुरी मुँह अबलग ढेरी (भक्तमाल) ।
निसदेह आज पर्यंत माँ कर्मा की खिचड़ी का प्रथम प्रसाद भोग स्वामी जगन्नाथ को अर्पित किया जाता है । कहावत प्रसिद्ध है -माँ कर्मा की खिचड़ी जगनाथ का भात जगत पसारे हाथ । यहाँ बताना आवश्यक है कि भारतीय इतिहास में महिला भक्तों की श्रेणी में चार ही कर्माबाई हुई है । सभी राजस्थान की ही थी । वीरांगना कर्माबाई ने युद्ध किया । पतिव्रता कर्माबाई पति के साथ सती हुई साहसी करमैतिनबाई सन्यासिनी हुई किन्तु कल्याणी समाज सेवी कर्माबाई ने प्रतिव्रताधर्म का पालन किया । (कल्याण नारी अंक सं. 2004 पृष्ठ 627) तैलिक कुल गौरव कल्याणी माता कर्मा ने कृष्ण की आराधना बालरूप में की । राजस्थान की धरती में ही हिन्दी साहित्य की प्रसिद्ध कवयित्री मीराबाई ने श्री कृष्ण की आराधना पति रूप में की । दोनों ही गृहस्थ थी । मीराबाई राजपरिवार से किन्तु कर्माबाई व्यापारिक परिवार से थी । दोनों ने ही परिवार का त्याग कर दिया । मीराबाई ने अपनी भक्ति का अनुपम उदाहरण अपने पदों के माध्यम से अमर कर दिया वही कर्माबाई ने अपने सामाजिक रचनात्मक कार्यों के द्वारा अपने कार्यों से ही उदाहरण प्रस्तुत किया । दोनों में ही समर्पण भक्ति थी । कर्मा माता तेरी जय हो ।
संवत | जीवन में महत्वपूर्ण घटना | वर्ष | अन्तर | सन |
1073 | जन्म, झांसी तैलकार परिवार | 0 | 0 | 1016 |
1081 | प्रारंभिक बचपन, धार्मिक संस्कार | 08 | 08 | 1024 |
1082 | तालाब की घटना, प्रथम चमत्कार | 09 | 01 | 1025 |
1084 | भीम, दूध की घटना द्वितीय चमत्कार | 11 | 02 | 1027 |
1085 | विवाह नरवगढ में | 12 | 01 | 1028 |
1090 | प्रथम संतान पुत्र | 17 | 05 | 1033 |
1097 | राजा के हाथी को व्याधि | 24 | 07 | 1040 |
1098 | अन्याय के विरोध में नरवर त्याग | 25 | 01 | 1041 |
1100 | गर्भावस्था द्वितीय संतानार्थ | 27 | 02 | 1043 |
1101 | पति की मृत्यु अकाशवाणी | 28 | 01 | 1044 |
1116 | बालक व्यवस्था एवं गृहत्याग | 43 | 15 | 1059 |
1117 | पुरीधाम निवास, बालकृष्ण भक्ति | 44 | 01 | 1060 |
1120 | समुद्रतट निवास, बालकृष्ण भक्ति | 47 | 03 | 1063 |
1121 | चमत्कार, दर्शन, स्वर्गारोहण | 48 | 01 | 1064 |
कल्याणी माता कर्मा बाई वंश/जीवन वृत्त (जन्म चैत्र कृष्ण पक्ष, पापमोचनी एकादशी झांसी संवत 1073 सन् 1016 ई.)