रायगढ़ जिला मुख्यालय के ग्राम देवरी में 12 जुलाई 1984 को II पिता दयानिधी साहू माता हंसामति साहू के परिवार में बालक हलधर का जन्म हुआ। प्राथमिक शिक्षा डूमरपाली में तथा माध्यमिक शिक्षा डॉगीतराई में कक्षा 7वीं में प्रारंभ की। तभी मात्र 13 वर्ष की उम्र में सांसरिक बंधनों से मुक्त होकर जन कल्याण हेतु ईश्वर की शरण में आ गए। 16 फरवरी 1998 को बिना किसी को बताए निकल पड़े। शिव आराधना के लिए, रायगढ़ नगर के समीप कोसमनारा के जंगल में एकांत स्थान पर पहुंचकर कर उस क्षेत्र को तपोभूमि बना लिया।
भक्त प्रहलाद ने अपने बाल्यकाल में ही महलों के भोग विलास को दरकिनार कर सन्यासी जीवन को स्वीकार कर लिया था। वैसे ही इस अत्याधुनिक दौर में 16 फरवरी सन् 1998 से सत्यनारायण बाबा उर्फ हलधर एक ऐसा अनोखा शिवभक्त है जो विषधर देव के नाम पर अपनी जिव्हा समर्पण कर एक निर्जन स्थल पर बैठा हुआ है जहां न तो छप्पर है। और न ही कुटिया है। चिलचिलाती धूप कड़ाके की ठम्ड तथा मूसलाधार बारिश भी इस नन्हें शिवभक्त उपासक के तप को भंग नहीं कर पाई है। नंगे बदन में बिना अन्न ग्रहण कर हर पल भगवान शिव का स्मरण करने वाले इस अनोखे बालक के दर्शन मात्र के लिये आज दूर-दराज के लोग आते हैं। अपनी श्रद्धापूर्ण आस्था जताकर जा रहे हैं लेकिन नन्हा शिव उपासक है जो केवल अपने तप में रत रहकर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लोगों के लिये आस्था का केन्द्र बना हुआ है।
नगर से 5 किमी दूर कोसमनारा में सैकड़ों लोग इस गांव में जाकर उस अनोखे स्थल का दर्शन जरूर करते हैं, जहां पर 32 वर्षीय बालक भगवान शिव की स्मृति में गत 10 वर्षों से निरंतर डेरा जमाकर अपनी जीभ को भोले बाबा के नाम काटकर चढ़ा चुका है।
शिव उपासक बाबा सत्यनारायण मूलतः डूमरपाली का निवासी है। दो भाई एक बहन में सबसे बड़ा पुत्र सत्यनारायण पांचवी कक्षा तक पढ़ा है। छोटे से कस्बे डूमरपाली के मिट्टी से निर्मित झोपड़ी में सकी मंसमति (मा), गणेश (भाई) तथा गनेशी (बहन) है। हरे-भरे लहलहाते पेड़ पौधों से अच्छादित डूमरपाली में शिव भक्त सत्यनारायण तीन साल की उम्र में अपनी बूढ़ी दादी से 50 रुपये मांगकर घर से ऐसा निकला कि आज पर्यंत घर वापस नहीं लौटा। भूपदेवपुर के निकट ग्राम दातरगुड़ी के शिवमंदिर में प्रत्येक गुरूवार को नियमित रूप से जाने वाला सत्यनारायण सन्यासी जीवन में प्रवेश करने के पहले डूमरपाली के शंकर मंदिर में लगातार ध्यान लगाकर शिवभक्त के रूप में गांव में अपनी अलग पहचान बना चुका है। हर समय भगवान शंकर को स्मरण कर मोह माया को त्यागने वाले बालक सत्यनारायण के संबंध में बताया गया कि उसके पिता दयानिधि भी भगवान शंकर के अनन्य उपासक थे। बाबा सत्यनारायण आज जिस जमीन पर तप कर शिव उपासक बना हुआ है। जब उसने इस जमीन पर डेरा जमाया तो भूस्वामी ने आपत्ति करते हुए उसे वहां से हटाने का भरसक प्रयास किया फिर एक रात उसे भगवान शंकर का सपना आया तब से उसने अपने खेत को बाबा सत्यनारायण के सुपुर्द कर दिया है।
नंगे बदन रहकर निरंतर कठोर तप में मगन यह अनोखा बालक जबर्दस्त ठण्ड, गर्म लू के थपेड़ों तथा बारिश के दिनों में भी एक ही जगह पर आराधना करता रहता है । सत्यनारायण के कठिन साधना को देखकर जब लोगों ने उक्त खुले स्थान में मंदिर बनाने का विचार किया तो बालक शिवभक्त ने मंदिर निर्माण पर मना करते हुए लिखकर कहा कि वहीं इसी हाल में रहना चाहता है। जिसके बाद बाबा के आदेश के अनुसार गांव वाले मदिर नहीं बनाए। कभी गांव में अल्हड़पन के साथ चिरण करने वाला बालक सत्यनारायण के अकस्मात हृदय परिवर्तन होने के साथ बाबा सत्यनारायण बनने से उसकी छोटी बहन गनेशी को रक्षाबंधन के रोज सजल नयनों से कोसमनारा के तपस्थल पर आना पड़ता है। भातृप्रेम से वशीभूत गनेशी फिर बाबा सत्यनारायण के कलाई पर राखी बांधकर अपने कर्तव्य का निर्वाह करती है तो वहीं बेटा दूज के उपवास पर भी हंसमति अपने लाडले बेटे के मुखड़े को देखने के वास्ते ड्रमरपाली से 15 किमी का सफर कर जय कोसमनारा आती है तब वहीं आकर उसके कलेजे को ठंडक नसीब होती है। और फिर अपने सन्यासी पुत्र को जी भरकर आशीर्वाद देकर मायूसी के साथ वापस लौट जाती है ।