भारतीय समाज विभिन्न संस्कृतियों और धर्म और जातियों से निर्मित है । इसकी सभ्यता बहुस्तरीय है । जैसे-जैसे आप इन स्तरों को उधाडते जाएंगे वैसे-वैसे आपको एक नए तथ्य एक नए सत्य मिलते जाएंगे । तेली जाति पर केंद्रित है इसीलिए ज्यादा उड़ान भरने की गुंजाइश भी नहीं है । तेली जाति के लोग पूरे भारत में पाए जाते हैं और अलग अलग नाम से जाने जाते हैं । किस जाति के लोग अनेक फिरके में विभाजित भी है और उनके बीच रोटी बेटी का संबंध भी नहीं है । जाति के लोग विशेष मंत्र जैसे कबीर पंथ, संत निरंकारी, गायत्री परिवार के समर्थक भी हैं लेकिन स्वयं को हिंदू धर्मवलंबी कहने से परहेज भी नहीं करते ।
भारतीय गणराज्य सचमुच में महामानव समुद्र है । 21वी सदी में किसी जाति या उप जाति के इतिहास की पड़ताल क्योंकि जानी चाहिए ? और इस तरह के इतिहास लेखन का इतिहास दर्शन क्या होना चाहिए ? क्या इस प्रकार के उपक्रम से भारत राष्ट्र राज्य के रूप में शक्तिशाली होगा ? साहू समाज जो स्वयं में विभाजित है विशाल एकीकरण की ओर अग्रसर हो सकेगा ? छत्तीसगढ़ में साहू समाज की आबादी तकरीबन 50 लाख से ऊपर है और लगभग 8 फिरके में विभाजित भी है । प्रत्येक फिरके के अपने संगठन है रीती रिवाज है । प्रत्येक फिरका स्वयं को अन्य फिरका से सर्वश्रेष्ठ मानता है । तो क्या साहू समाज में सामूहिक इतिहास बोध का अभाव है ? ब्रिटिश मानव शास्त्री आर. वी रसेल ने सन 1916 में प्रकाशित अपनी खोजपूर्ण कृती “The Tribes and Castes of The Central Provinces of India ” मैं तेली जाति के विभिन्न फिरकाे का विस्तृत रूप में वर्णन किया है जिसमें तत्कालीन संयुक्त प्रांत एवं बारार में निवासी तेली समाज की अंतरिक संरचना और विवेक के साथ साथ अवध, कन्नौज और गुजरात से आईटीओ का उल्लेख मिलता है । रसेल ने तेली जाति की उत्पत्ति संबंधी कुछ परंपराओं का उल्लेख भी किया है जिसमें बहुश्रुत कथा शिव द्वारा बाल गणेश की उत्पादन वाली घटना भी सम्मिलित है । अनुसार इस कथा के अनुसार जब भगवान शिव ने बाल गणेश का सिर धड़ से अलग कर दिया तब माता पार्वती द्वारा आग्रह किए जाने पर शिव ने पास के जंगल में जाकर एक हाथी का सिर को काट कर गणेश के सिर के स्थान पर प्रतिस्थपित कर दिया । हाथी के स्वामी द्वारा जो स्वयं में एक व्यापारी था शिव से अपनी आजीविका चीन जाने की व्यथा सुनाई गई तब शिव ने उसे ओखली और मुसल प्रदान किया वहीं व्यापारी प्रथम तेली बना । अब सवाल है कि छत्तीसगढ़ के तेली समाज का कौन सा फिरका उक्त उत्पत्ति संबंधी परंपरा से स्वयं को अलगाता है ? जहा तक मेरीजानकारी है कोई भी फिरका उक्त परंपरासे स्वयं को नही अलगता है । रसेल ने अपनी उक्त कृती में तेली जाति की एक उप-जाति ‘मराठा तेली’ का उल्लेख किया जो स्वयं को गुजरात के पाटन इलाके सेआवजित होना बताते है । भौगोलिक रूप से सौराष्ट्र और महाराष़्ट्र आपस में जुडे हुए है । तत्कालीन नागपुर प्रांत में तेली जाति मुख़्य रूप से एक बैले और दो बैले उप-जाति में विभाजित थी और दो बैले उप-जाति लोगोंकोतराने तेली केनामसे जाना जाता था । छत्तीसगढ में निवासरत रंगहा साहू समाज अपने सामाजिक संगठन कोसन 1950 से मराठा दुबेलिया तेली समाज के नाम से पुकारते रहे है । रसेल ने अपनी उक्त कृती में छत्तीसगढ में निवासरत एकबहिया तेली जाति की महिलाओं द्वारा बायें हाथ में धातु की चुडी पहनने का उल्लेख किया है । अतएव मराठा दुबेलिया तेली समाजकी महिलाओं ने भी कालांतर में धतु की चुडी जो रांगा धातु की बनी होती थी पहनना शुरू किया इसलिये रंगहा साहू कहलाने लगे । मौखिक स्रोतों के अनुसार मुगल सैनिकों के अत्याचार से अपनी औरतों को बचाने के लिये मराठा तेली समाज ने रांगा कि चुडियां पहनायी थी । ऐसा माना जाता है कि मुगल सैनिक रांगा धातु कि चुडी पहनने वाली महिलाओं को नही छुते थे । साथ ही घर के बाहर सुअर बांध देते थे । जिससे कोई मुगल सैनिक इनके घर में प्रवेश्नकरसकें । बीसवीं सदीकेअंतिमदश्कतकसैनिकइनके घर में प्रवेश न कर सकें। बीसवीं सदी के अंतिम दशक तक इस समाज की महिलाएं बांये हाथ में रांगा की तीन मोटी चुडी पहनती रही है । कालक्रम में बदलाव और आधुनिक शिक्षा के आलोक में रांगा की चुडी का अब परित्याग कर दिया गया है ।
छत्तीसगढ प्रदेश दुबेलिया तेली (रंगहा साहू) समाज का गौरवमयी इतिहास रहा है । वर्तमान में इस समाजके लोग आइ राज (ब्लाक) एवं 64 गांवो में निवासरत है । आठ राज (ब्लाक) में खैरागढ, छुईखदान, मंडई, धमधा, दुर्ग, भिलाई पावर हाउस, रायपुर तथा नागपुर (महाराष्ट्र) सम्मिलित है । मौखिक एवं दस्तावेजी स्त्रेतों के अनुसार दुबेलिया तेली (रंगहा साहू) समाजके लोग तत्कालीन मध्य प्रांत एवं बरारा के वर्धा, चंद्रपुर, यवतमाल, अमरावती, नागपुर, लांजी तथा बालाघाट के क्षेत्र् से आकर छत्तीसगढ के विभिन्न हिस्सों में बस बये थे । मराठा एवं अंग्रेजों के शासन काल में इस समाज के लोगों का आगमन छत्तीसगढ में अधिक संख्यों में हुआ था । यही वजह है कि इस समाज के नाम से पुकारते थे। हालफिलहाल तक यह समाज अपने तमाम दस्तावेजों में मराठा दुबेलिया तेली (रंगहा साहू) समाजका उल्लेख करता रहा है । इस समाज के लोगों का पारंपारिक व्यवसाय कृषि एवं तेलघानी रहा है । सन 1861 ई. की जनगण्ना रिपोर्ट का हवाला देते हुये जियोलॉजीकल सर्वे ऑफ इंडिया के डिप्टी सुपरिन्टेण्डेंट श्री.पी. एन. बोस ने अपनी रिपोर्ट ‘Chhattisgarh : Notes On Its Tribles, Sects & Castes (Year 1890) ’ में उल्लेख किया है -
“A large agricultural and trading caste numbering at The Last Census - 203503 in Raipur and 61324 in Bilaspur” आधुनिक शिक्षा के आलोक में इस समाज की नवीन पीढी ने लता के अनेक सोपान तय किये है । छत्तीसगढ की समन्वयकारी संस्कृति के निर्माण में इस समाज की महती भुमिका रही है ।
वर्तमान मेंयह समाज पंजीयक , फर्म्स एवं संस्थायें, रायपुर, छत्तीसगढ से संस्कृत है । छत्तीसगढ़ के अन्य साहू समाज के प्रति हमारा छत्तीसगढ़ प्रदेश दुबलिया तेली (रंगहा साहू) समाज भक्त माता कर्मा देवी, राजीव माता एवं दानवीर भामाशाह को अपना पूर्वज एवं आराध्य मानता है । तथा प्रति वर्ष पूरे हर्षोल्लास के साथ मां कर्मा जयंती मनाई जाती है । छत्तीसगढ़ प्रदेश साहू समाज की संकल्पना को मूर्त रूप देने के लिए दुबेलिया तेली (रंगहा साहू) समाज कटिबद्ध है ।