विद्वान अभी तक यह मानते हैं कि सिंधु सभ्यता काल जिसे पूर्व वैदिक काल भी कहा जाता है, सप्त सैंधव प्रदेश (पुराना पंजाब, जम्मू कश्मीर एवं अफगानिस्तान का क्षेत्र) में, जो मुनष्य थे वे त्वचा के रंग के आधार पर दो वर्ग में विभाजित थे । श्वेत रंग वाले जो घाटी के विजेता थे 'आर्य'' और काले रंग वाले जो पराजित हुये थे 'दास' कहलाये। विद्वान आर्य का अर्थ श्रेष्ठ मानते हैं क्योंकि वे युद्ध के विजेता थे। ये मूलत: पशु पालक ही थे। कालांतर में इन दोनों वर्गों में रक्त सम्मिश्रण भी हुआ और वृहत्तर समाज वर्गों में बंटते गया, जो संघर्ष की जीविविषा है। जिन्होंने पराजय स्वीकार कर लिये और विजेता जाति की रीति-नीति अपना लिये वे आर्यो के चतुर्वर्णीय व्यवस्था में शामिल हो गये। जिस पराजित समूह ने आर्यों की व्यवस्था स्वीकार नहीं किये वे दास, दस्यु, दैत्य, असुर, निषाद इत्यादि कहलाये। तब तक जाति नहीं बनी। थी और वर्ण स्थिर नहीं वरन परिवर्तनीय था। धर्म सूत्रों में उल्लेखित तथ्यों के अनुसार 'अनुलोम विवाह' से उत्पन्न संताने सात या आठ पीढ़ी बाद अपने मूल वर्ण में वापस लौट सकते थे, किन्तु ‘प्रतिलोम विवाह करने वालों के लिये यह सुविधा नहीं थी। सुविधा क्यों नहीं थी, क्या कारण थे? विचारणीय विषय है ।
महाभारत में तुलाधार नामक तत्वादर्शी का उल्लेख मिलता है जो तेल के व्यवसायी थे किन्तु इन्हें तेली न कहकर 'वैश्य' कहा गया, अर्थात तब तक (ईसा पूर्व उरी-4थी सदी) तेली जाति नहीं बनी थी । वाल्मिकी के रामकथा में भी तेली जाति का कोई उल्लेख नहीं है तथा अन्य वैदिक साहित्यों में भी तेल पेरने वाले तेली जाति का प्रत्यक्ष प्रसंग नहीं मिलता है। पद्म पुराण के उत्तरखण्ड में विष्णु गुप्त नामक तेल व्यापारी की विद्वता का उल्लेख है।
आर्य सभ्यता के चतुर्वर्णीय व्यवस्था में ब्राम्हण, और क्षत्रिय के बीच श्रेष्ठता के लिये स्पर्धा थी । वैश्य के ऊपर कृषि, पशुपालन एवं व्यापार अर्थात कृषि उत्पाद का वितरण का दायित्व था, इन पर ''यज्ञ एवं दान' की अनिवार्यता भी लाद दी गई। जिससे समाज में अशांति थी, तथा भगवान महावीर आये, जो क्षत्रिय थे, जिन्होंने यज्ञों में होने वाले असंख्य पशुओं की हत्या का विरोध किया, साथ ही जबरदस्ती दान की व्यवस्था का विरोध कर ''अपरिगृह'' का सिद्धांत प्रतिपादित किया। इसके बाद शाक्य मुनि गौतम बुद्ध हुये, जिन्होंने भगवान महावीर के सिद्धांतों को आगे बढ़ाते हुये, वर्णगत/जातिगत लिंगगत भेदभाव का विरोध किया। गौतम बुद्ध भी क्षत्रिय ही थे और उन्हें, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र वर्ण का सहज समर्थन मिला। इसी दौरान सिंधु क्षेत्र में यवनों का आक्रमण हुआ और अंत में चंद्रगुप्त मौर्य, मगध के शासक बने। इनके वंशज अशोक ने कलिंग पर आक्रमण किया, जिसमें एक लाख मनुष्य मारे गये तथा डेढ़ लाख मनुष्य घायल हुये। युद्ध के वीभत्स दृश्य को देखकर सम्राट अशोक का परिवर्तन हुआ और वे बुद्ध धर्म के अनुयायी बन गये। कुछ जैन विद्वान मानते हैं कि सम्राट अशोक जीवन के अंतिम काल मैं जैन धर्म के अनुयायी हो गये थे। महावीर एवं गौतम बुद्ध के कारण प्रचलित चतुर्वर्णीय व्यवस्था की श्रेणी बद्धता में परिवर्तन हुआ। नवीन व्यवस्था में ब्राम्हण के स्थान पर क्षत्रिय श्रेष्ठतम् हो गये और ब्राम्हण, वैश्य एवं शुद्र समान स्तर पर आ गये । फलस्वरूप वर्ण में परिवर्तन तीव्र हो गया। ईसा के 175 वर्ष पूर्व मगध के अंतिम मौर्य राजा वृहदरथ को मारकर, उसी के सेनापति पुष्यमित्र शुंग राजा बन गये जो ब्राम्हण थे । माना जाता है कि पुष्य मित्र शुंग के काल में ही किसी पंडित ने मनुस्मृति की रचना की थी। शुग वंश का 150 वर्ष में ही पतन हो जाने से मनुस्मृति का प्रभाव मगध तक ही रहा ।
ईसा के प्रथम सदी के प्राप्त शिला लेखों में तेलियों के श्रेणियों/संघों (गिल्ड्स) का उल्लेख मिलता है। महान गुप्त वंष का उदय हुआ, जिसने लगभग 500 वर्षों तक संपूर्ण भारत को अधिपत्य में रखा। इतिहास कारों ने गुप्त वंश को वैश्य वर्ण का माना है। राजा समुद्रगुप्त एवं हर्षवर्धन के काल को साहित्य एवं कला के विकास के लिए स्वर्णिम युग कहा जाता है। गुप्त काल में पुराणों एवं स्मृतियों की रचना प्रारंभ हुई। गुप्त वंश के राजा बालादित्य गुप्त के काल में नालंदा विश्वविद्यालय के प्रवेश द्वार पर भव्य स्तूप का निर्माण हुआ। चीनी यात्री व्हेनसांग ने स्तूप के निर्माता बालादित्य को तेलाधक वंश का बताया है। इतिहासकार ओमेली एवं जेम्स ने गुप्त वंष को तेली होने का संकेत किया है। इसी के आधार पर उत्तर भारत का तेली समाज 'गुप्त वंश'' मानते हुये अपने भगवा ध्वज़ में गुप्तों के राज चिन्ह गरूढ़ को स्थापित कर लिया। गुप्त काल में सनातन, बौद्ध एवं जैन धर्मावलंबियों को समान दर्जा प्राप्त था। इसी काल में 05 वीं सदी में अंहिसा पर अधिक जोर देते हुये, हल चलाने तथा तेल पेरने को हिंसक कार्यवाही माना जाने लगा, जिससे वैश्य वर्ण में विभाजन प्रारंभ हुआ। हल चलाकर तिलहन उत्पन्न करने वाले तेली जाति को स्मृतिकारों ने शुद्र वर्ण कहा। इतना ही नहीं, तिलहन के दाने में जीव होने तथा तेल पेरने को भी हिंसक कार्यवाही कहा गया। गुजरातमहाराष्ट्र-राजस्थान का क्षेत्र जहां संर्वाधिक तेल उत्पादन होता था, घांची के नाम से जाना जाता था, में जैन मुनियों के चतुर्मास काल में ‘‘घानी उद्योग'' को बंद रखने दबाव बनाया गया फलस्वरूप तेलियों एवं शासकों के मध्य संघर्ष हुआ। जिन तेलियों ने ‘‘घानी उद्योग' को बचाने तलवार उठाया वे घांची क्षत्रिय कहलाये, हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी घांची क्षत्रिय मोढ़ तेली हैं। जिन्होंने केवल तेल का व्यवसाय किया वे तेली वैश्य, तथा जिन्होंने सुगंधित तेल का व्यापार किया वे मोढ़ बनिया कहलाये। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के पूर्वज मोढ़ बनिया थे। जिन्होंने हल चलाकर तिलहन उत्पादन किया, उन्हें स्मृति कारों ने शुद्र वर्ण कहा और प्रतिलोम विवाह का किस्सा पकड़ा दिया। तेली जाति की उत्पत्ति का वर्णन विष्णुधर्म सूत्र, वैखानस स्मार्तसूत्र, शंख एवं सुमंतु में है। एकादश वैश्य, मूल वैश्य- पशुपालक/तैलिक कपासमारा/ पुष्पकार स्वर्णकार/ कुभंकार/ कसेर, तमेर/ बढ़ई। लोहार/ दर्जी/चर्मकार। ये मूलतः कार्याधारित वैश्य हैं। जिनमें तैलिक तैलकम' कालांतर में आर्थिक दृष्टि से संपन्न हुये। इस तारतम्य में यह कथन अधिक उपयुक्त होगा। कि तैल एवं तेल व्यवसायी के असाधारण महत्व को देखकर उच्च वर्गों ने अव्यवहारिक कुटनीति अपनाई और तैलिक समाज को परेशान एवं नुकसान पहुंचायी। फिर भी तैलिक समाज ने अपने अस्तित्व रक्षार्थ सहन किया और अवसर मिलने पर अपना सामर्थ भी प्रदर्शित किया।
वास्तव में 9वीं से 13वीं सदी तक तैलिक समाज संपूर्ण भारत में अपने वाणिज्य व्यापार, धर्मार्थ कार्य, सामाजिक रचनात्मक कार्य के लिए अग्रगण्य रहे हैं। बुंदेल खण्ड, बघेल खण्ड तथ दक्षिण के क्षेत्रों एवं राजस्थान-गुजरात राज्यों में तैलिक समाज विभिन्न क्षेत्रों में प्रभावशाली रहा। मुगल बादशाह शाहजहां, तेली व्यापारी मशाह से प्रभावित होकर महूशाह सिक्का चलाने का एकाधिकार दिया। वीर जुझारू अक्का देवी तेलिंगन, छत्रसाल, कवयित्री खगनिया, वीरांगना ताई तेलिन, महारानी स्वर्णमयी, कृण्णगी देवी का उल्लेख सर्वाधिक गौरव की समृति है। चंदबरदाई एवं आल्हाखण्ड में सेनानी घनीराम | (धुनवा तेली) का उल्लेख ''तब धनुवा तेली गरजा, तुमको कोल्हू दिये पेराय' आदि भी उल्लेखनीय है। महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध संत तुकाराम | के अभंग भक्ति गीतों को भाषालंकरण संताजी जगनाई तैलिक वंशधर ने किया था। उनकी अभंग गाथा भरणी साहित्य भी धरोहर है।
इस प्रसंग में छत्तीसगढ़ के गौरव की अभिस्वीकृति भी आवश्यक है जहां भक्तिन माता राजिम का सती स्वांग एवं भगवान राजिमलोचन प्रतिमा, सती तेलिन घाटी, माता भानेश्वरी की यशोक्ति के साथ वर्तमान में भी सतत तपस्यारत बाबा सत्यनारायण स्मरणीय है ।
ऐतिहासिक एवं वर्तमान में भी स्थिति प्राय अखिल भारतीय स्थल विशेष का नामांकन समीचीन होगा। काठमांडू (नेपाल) में तैलिक व्यापारी केन्द्र (चेंबर आफ कामर्स) नालंदा (विशाल प्रवेश द्वारा स्थापित) झांसी (कर्मा माता की जन्मभूमि) मथुरा (तेली धनी द्वारा निर्मित रंगनाथ मंदिर) यीडर राजस्थान (दानवीर भामाषाह की जन्मभूमि) ग्वालियर (प्राचीन तेली मंदिर) परना (तेलिया भंडार स्थापित) गोरखपुर (राष्ट्र गुरू गोरखनाथ की कर्मभूमि) कल्याण (संताजी महाराज) कन्नाद (ताई तेलिन की कर्मभूमि) मदुराई (सती कण्णगी की कर्मभूमि) राजिम (माता राजिम का भक्ति क्षेत्र) केशकाल (सती तेलिन घाटी मंदिर) पुरी (माता कर्मा की तपोभूमि) शिरडी आदि । यह भी प्रेक्षणीय है कि, शताधिक वर्ष पहले सन् 1912 में बनारस में अखिल भारतीय तैलिक साहू महासभा का गठन हुआ। इसी तरह सन् 1912 से 1926 तक, धमतरी के गोकुलपुर बगीचा, सिलहट बगीचा, आमदी भाठा में विशाल साहू सम्मेलन संपन्न हुआ। सन् 1975 में अखिल भारतीय स्तर पर सर्व प्रथम आयोजित, सभी समाज के लिए। प्रेरणादायी रचनात्मक संस्कार 'आदर्शसामूहिक विवाह'' महासमुंद के मुनगासेर गांव में संपन्न हुआ। अब तो छत्तीसगढ़ एवं मध्यप्रदेश में ''कन्यादान योजना के अंतर्गत यह शासकीय उपक्रम भी है। दुर्ग से सन् 1960 में प्रकाशित ‘साहू संदेश' अंचल की प्रथम सामाजिक पत्रिका है वहीं साहू-संपर्क रायपुर से निरंतर प्रकाशित मासिक पत्रिका है । तैलिक जाति, सामाजिक गौरव आदि को एकीकृत करके रूपायित ‘साहू वैश्य जाति का इतिहास' (लेखक डा. सुखदेव राम सरस) समाज गौरव प्रकाशन द्वारा शताब्दि वर्ष 2013 में प्रकाशित संदर्भ साहित्य है ।
इस तारतम्य में यह बताना अधिक सामयिक होगा कि भारत में अंग्रेजों के आगमन से पूर्व तक तेली समुदाय की स्थिति रही:
1. वे आर्थिक दृष्टि से प्रभावशाली थे ।
2. राजस्थान, बिहार, बंगाल एवं तमिलनाडू में अधिक समृद्ध थे ।
3. शेष भारत, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, छत्तीसगढ़, केरल, आदि में बड़े जमींदार एवं साहूकारी के कारोबारी थे ।
4. वे जहां भी प्रभावी रहे, मंदिर, धर्मशाला, आदि निर्माणकर्ता बने ।
5. दक्षिण में व्यापार, उत्तर पूर्व मध्य में राजनीति, पष्चिम में रचनात्मक कार्य में सक्रिय रहे ।
भारत में बिहार, बंगाल, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, राजस्थान, आंध्र एवं केरल में तैलिक आबादी तुलनात्मक रूप से अधिक है, तैलिक जातिजन भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अन्यान्य नामों से अभिहित है यथा राजस्थानी क्षेत्र घाणीकला, लाटेचा, राठौर, धांची, पदमशाली, आदि, बिहारबंगाल में शाह, साहा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, म.प्र., ओडिशा में साहू, साव, गुजरात में मोड़, भौदी, दक्षिण प्रांतों में चेट्टी, चेट्टीयार गांडला, महाराष्ट्र में तराने आदि।
सारांश में यह कहा जा सकता है कि, लगभग 1000 वर्ष पूर्व तक तेली समाज क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र वर्ण को धारण कर समरस जीवन जी रहे थे। 9वीं-10वीं सदी में गुरु गोरखनाथ हुये, जो चतुवर्णिय व्यवस्था को नहीं मानने वालों को संगठित कर, नया ''नाथ संप्रदाय'' स्थापित किये गुरू गोरखनाथ को तेली अपना पूर्वज मानते हैं। 10वीं-11वीं सदी में कलचुरी एवं चालुक्य वंशीय शासक हुये। कलचुरी राजा गांगेयदेव एवं चालुक्य राजा तैलप को तेली समाज अपना पूर्वज मानता है और भक्त कर्मा माता के प्रसंग को इन राजाओं के काल से संबद्ध करता है। 14वीं सदी में अलवर के नमक व्यापारी हेमचंद्र जो धुसर गोत्र के थे, अपने पुरूषार्थ से दिल्ली के शासक बने और मुगल बादशाह अकबर के आक्रमण का सामना किये । राजा हेमचंद्र ने विक्रमादित्य की उपाधि कारण किया था, इसलिए इतिहास इन्हें सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य के नाम से स्मरण करता है। 16 वीं सदी में राजपुताना में महाराणा प्रताप के मंत्री एवं श्रेष्ठी भामाशाह हुये जो ओसवाल गोत्र के थे, इन्होंने स्वराज्य के लिये अपनी संपूर्ण संपति को दान कर दिया था। इन्हें ही हम दानवीर भामाशाह' के नाम से पुण्य स्मरण करते है । 15वीं सदी में धार्मिक भेदभाव एवं उन्माद के बीच संत कबीर का जन्म हुआ । इनके शिष्य धनी धर्मदास उर्फ जुड़ावन साहू बांधवगढ़ के कसोधन गोत्र थे, जिन्होंने अपनी 57 करोड़ की संपत्ति को दान कर, छत्तीसगढ़ के, दामाखेड़ा, कुदुरमाल, कवर्धा, रतनपुर में संत कबीर के गुरू गद्दी की स्थापना किये थे। मुगल काल में तेली समाज में "नाथ संप्रदाय'' एवं संत कबीर का व्यापक प्रभाव था, इसलिए संत तुलसी दास जी ने राम चरित मानस में तेली सहित 6 जातियों को अधम अर्थात चतुवर्णिय धर्म को नहीं मानने वाला, कहा है।
यद्यपि अब वर्ण व्यवस्था का राष्ट्रीय जीवन में कोई महत्व नहीं रह गया है फिर भी भारत वर्ष का तेली समाज क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र वर्ण के साथ-साथ निर्गुणी संप्रदाय के समरस व्यवस्था का संदेश वाहक बना हुआ है।