राजिम छत्तीसगढ़ क्षेत्र का पवित्र ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र रहा है। अपने पुरातन इतिहास की गौरवमयी परम्परा को आत्मसात किये यह धरोहर भगवान विष्णु की नगरी है । छत्तीसगढ़ के लाखों नरनारियों को माघ पूर्णिमा से शिवरात्री तक सांस्कृतिक एकता के पवित्र बन्धन में आबद्ध किए रहती है। यहां माह पर्यन्त विशाल मेला का आयोजन किया जाता है ।
अपने आप में उत्तर तथा दक्षिण भारत की संस्कृति को सजाए राजिम संगम के पुण्य को बांटती है और आज भी हर छत्तीसगढ़ीया कहा जावो बड़ दूर हे गंगा कहकर अपने सभी पवित्र धार्मिक कार्य इसी त्रिवेणी संगम (महानदी सेंदूर एवं पैरीनदी) में पूर्ण करता है ।
राजिम की इस सास्कृतिक ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धि के पीछे एक महान नारी का आत्मोत्सर्ग अनन्य सेवा भाव श्रम एवं साधना का पल जुड़ा हुआ है, भले ही इसे आज विस्मृत कर दिया गया हो अथवा जाति विशेष का कर्तव्य मान प्रबंधक वर्ग निश्चित हो गये हो पर जिस नारी ने निस्वार्थ भाव से अपना सब कुछ अर्पित कर दिया हो उसे नाम की कोई लालसा नहीं थी । उसने आराध्य का साथ मांगा था और अपना प्राणोत्सर्ग भी उन्हीं के श्री चरणों में किया था। आज भी अपने प्रिय भगवान के सामने उस सती की समाधि विद्मान है ।
हमें इस बात का गौरव है कि भक्त माता परम श्रद्धेय राजिम का असीम स्नेह हमारे, वंश को प्राप्त हुआ। छत्तीसगढ़ की चित्रोपल्ला गंगा (महानदी) की गोद में जन्म लेने वाली भक्त माता राजिम तैलिक वंश शिरोमणि है। प्रमाण के परिप्रेक्ष्य में हमें राजिम की पवित्र भूमि का भ्रमण करना होगा । आइए पुण्य स्नान का लाभ ले सर्वप्रथम ऐतिहासिक पक्ष को दृष्टिगत करें । जिसके लिए लेख, शिलालेख, धातुलेख एवं प्राप्त अवशेषों का सहारा लिया जाता है । राजिम का यह क्षेत्र प्राचीन समय में कमल क्षेत्र के नाम से अभिहित था। उसे ही पदमपुर कहा जाने लगा । कालान्तर में श्री संगम भी कहलाया पदमपुराण के अनुसार देवपुर भी कहने लगे । महाभारत में चित्रोत्पल्ला गंगा के नाम से इस क्षेत्र का उल्लेख किया गया है । यथा चित्रोत्पल्ला कथेति सर्व रूप प्रणाशिणी । भीष्पपर्वे । किंतु आज पर्यन्त यह निश्चित नहीं हो पाया है कि इस कमल क्षेत्र पदमपुर देवपुर, या चित्रोत्पल्ला गंगा क्षेत्र का सुपरिचित नाम राजिम कैसे पड़ा? यह प्रश्न विचारणीय है क्योंकि श्री विग्रह युक्त भगवान विष्णु की प्रतिमा का संबंध (राजीव) भी इसी नाम से है, और फिर राजिम का उल्लेख पूर्वकाल में नहीं हुआ है। अतः इन संदर्भो का अवलोकन उपयुक्त होगा । इस प्रमाण की परिपुष्टि को हम मुख्यतया तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं - 1. पौराणिक 2 ऐतिहासिक एवं 3. किंवदन्ती या जनश्रुति । प्रत्येक प्रमाण में दो - दो संदर्भ जुड़े हुए है ।
1. पौराणिक - प्रथम संदर्भाधीन भगवान विष्णु के नाम पौराणिक कथाओं के आधार पर ले सकते हैं । इसके अनुसार पदमपुर कमल के पर्याय से है भगवान की प्रतिमा को राजीव नाम दिया गया है । भगवान विष्णु के कमल के पर्यायवाची अनेक नाम प्रचलित है । यथा राजीवलोचन कमलनयन, सरसीज नयन, पदमनेत्र इत्यादि । और कालांतर में राजीव का विकृत रूप राजिम हुआ है। इसका आधार लोगों की धार्मिक भावना से ग्राहय है, इसलिए राजीव का राजिम हो जाना संगत नहीं लगता । लोग धर्म भी होते है । यहां के लोग तो अपना सर्वस्व लुटाकर भी धार्मिक यात्रा करते हैं, ऐसी स्थिति में राजीव लोचन को राजिम लोचन कहने की हिम्मत कैसे होगी ? अतः राजीव का राजिम विकृत रूप कर देना धर्मप्राय जनों के लिए उपयुक्त नहीं है । इतिहासकार डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर रायपुर ने अपने राजिम ग्रंथ में राजीवलोचन को ही आधार माना है । उनका पक्ष धार्मिक हो सकता है ।
2. ऐतिहासिक - तत्पश्चात दूसरा पक्ष ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि पर आधारित है जिसके अनुसार ताम्रलेख पर उत्कीर्ण राजमाल शब्द है। यह ताम्रलेख राजिव लोचन मंदिर मण्डप भित्ति पर जड़ा हुआ है संभवतया यह जनवरी 1145 को उत्कीर्ण किया गया है। जिसमें जगतपाल नामक प्रसिद्ध सेनापति अपने प्रपितामह राजमाल की श्री वृद्धि के लिए एक नगर बसाया था जिसे रजिमालपुर कहते थे। वही नाम संक्षिप्त होकर राजम से राजिम रह गया है। अंग्रेज इतिहासकार ए. कनिधम ने राजमाल वंश से ही राजम - राजिम की उत्पत्ति माना है । दूसरी पृष्ठ भूमि यह है कि सोमवंशीय राजकाल में कोई राजीव नयन नामक प्रतापी राजा था। इसी के नाम से यह क्षेत्र राजिम कहलाया ।
दोनों ही प्रमाण यत्र - तत्र प्राप्त होते हैं किन्तु नामकरण के परिप्रेक्ष्य में युक्ति युक्त नहीं कहा जस सकता। राजमाल का उल्लेख मंदिर निर्माण के बाद ही स्थिति है क्योंकि जगत पाल देव ने विष्णु मंदिर का निर्माण नहीं कराया था। भित्ति ताम्रलेख की पंक्ति 10 में जगतपाल द्वारा मंदिर का पुनः निर्माण तथा उसकी व्यवस्था के लिए शाल्मलीय ग्राम के दान का उल्लेख हैं। वहीं कहा जाता है कि राम मंदिर के इस ताम्रलेख को राजीव लोचन मंदिर में भितिस्थ किया गया है। प्रसिद्ध इतिहासकार डा. व्ही. व्ही. मिराशी नागपुर के अनुसार राजीव लोचन मंदिर पूर्व में ही निर्मित था। राजा जगतपाल देव ने उसका जीर्णोद्धार किया था वैसे ही राजीव नयन नामक सोमवंशीय राजा अवश्य हुआ था किन्तु वह इतना प्रतापी नहीं था कि उसके वंशधर इस उपक्रम से उसकी श्री वृद्धि करते। अतः ये दोनों ऐतिहासिक प्रमाण राजिम के अनुरूप नहीं पड़ते है ।
3. किवदंती - तत्पश्चात अंतिम प्रमाण स्वरूप जनश्रुति अथवा किवदन्ती ही शेष रह जाते हैं । इसमें प्रथम जनश्रुति का उल्लेख अंग्रेज इतिहासकार सर रिचर्ड जेकिन्स ने एशियाटिक रसिर्जेज जिल्द 35 पृष्ठ 503 में किया है। इसके अनुसार भगवान श्री राम के समकालीन राजा राजीवनयन की यह नगरी राजधानी थी। राजा ने भगवान राम के अश्वमेघ यज्ञ के श्यामकर्ण घोड़े को पकड़ कर महानदी तट स्थित कंदर्पक ऋषि को सौंप दिया। जिसका उद्देश्य भगवान राम की सेना का ऋषि के क्रोध से नष्ट कराना था। राजा राजीव नयन अपने इस ध्येय में सफल हुआ। शत्रुघ्न सेना सहित नष्ट हो गये। अतः भगवान राम ने स्वयं स नगर में आकर उसे युद्ध में पराजित किया। भगवान राम ने राजीव नयन राजा को आदेश दिया कि वहां पर मंदिर का निर्माण करें। ऋषि ने कुमार शत्रुघन को ससैन्य जीवित कर दिया। राजा ने प्रासाद का निर्माण कर भगवान राम की प्रतिमा प्रतिष्ठित कराई। ऐसा माना जाता है। कि यह प्रतिमा कालान्तर में राजीवलोचन के नाम से प्रसिद्ध हुई और नगर राजा के नाम पर ही राजिव नाम पुकारा जाने लगा ।
दूसरी जनश्रुति के अनुसार ज्ञात होता है कि राजिम (राजम) नामक एक तेलिन के नाम पर इस स्थान का नाम पड़ा। कहा जाता है कि एक समय जब राजिम तेलिन तेल बेचने जा रही थी तो रास्ते में पड़े एक पत्थर से ठोकर खाकर गिर | पड़ी और सारा तेल लुढ़क कर बहने लगा। बहू राजिम बहुत दु:खी हुई। सास एवं पति द्वारा दी जाने वाली प्रताड़ना से उसका हृदय व्यथित हो उठा। जमीन पर लुढ़के तेल पात्र को उठाकर उसी पत्थर पर रख दिया और भगवान से रो रोकर प्रार्थना करने लगी। वह पति और सास द्वारा दिए जाने वाले संभावित दण्ड से उसकी रक्षा करें। बहुत देर तक रोते रहने एवं हृदय की व्यथा कुछ कम होने पर बोझिल मन से घर जाने के लिए रीते पात्र को जब वह उठाने लगी तो उसे यह देख हर्ष मिश्रित आश्चर्य हुआ कि तेल पत्र मुख तक लबालब भरा हुआ है। इससे भी आश्चर्य तब हुआ जब वह दिन भर घूम - घूम कर तेल बेचती रही पर उस पात्र का खाली होना तो दूर रहा एंक बूंद भी कम नहीं हुआ। आश्चर्य चमत्कार। राजिम के पति को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि पात्र तेल से भरा हुआ है और अन्य दिनों की अपेक्षा वह अधिक धन लेकर आई है। पति जन्य शंका या सास जन्य आक्रोश इस बात का भी बना। किन्तु राजिम के मुख से घटना का विवरण सुनकर अचरज का ठिकाना ना रहा। कौतुहल भी जागा प्रमाण के लिए दूसरे दिन सास - बहु खाली पात्र साथ ले गये। निश्चित स्थान पर जाकर राजिम ने प्रस्तर खण्ड दिखाया। सास ने अपने नये पात्र को रख दिया पूर्व दिन की भांति वह भी लबालब भर गया। इतना ही नहीं उस दिन ग्राहकों को तेल बेचने के बाद भी वह पात्र भी पूर्व उदाहरण की भांति एक बूंद भी नहीं रीता। संध्या घर आकर उसने पुत्र को सूचना दी। योजना बन गई। संकल्प जागा। प्रेरणा मिली। उस अक्षय पल दाता प्रस्तर खण्ड को उठाकर घर ले आना चाहिए । रात्रि को ही सप्रयास उस शिला खण्ड को खोद कर निकाला गया आश्चर्य । साधारण शिला। खण्ड के स्थान पर चतुर्भुजी भगवान विष्णु का श्याम वर्णी श्री विग्रह पाकर उनके आनन्द का ठिकाना न रहा। वस्तुतः प्रतिमा औधी पड़ी हुई थी। इसलिए ऊपरी भाग से केवल प्रश्तर खण्ड ही प्रतीत हो रहा था। उस मूर्ति को घर लाकर श्रद्धापूर्वक नित्यप्रति उसकी पूजा की जाने लगी। आराध्य देव। प्रथम पूजनीय भगवान विष्णु उसी कमरे में स्थापित किए गये जहां तेल पेरने का कार्य संचालित होता था। व्यवसाय प्रारंभ से पहले। प्रतिमा में प्रतिदिन तेल अर्पित करती थी । (कुछ लोग घानी में वजन रखने के स्थान पर रखने की बात करते हैं यह निराधार है। अपने आराध्य को सुव्यवस्थित रखा जाना ही उपयुक्त प्रतीत होता है। यह अवश्य ही वह स्थान वही कमरा था। डॉ. विष्णु सिंह ठाकुर राजिम) ।
इन्हीं दिनों राजा जगतपाल का राज्य दक्षिण कोसल में था। उन्हें स्वप्न में आदेश हुआ कि लोक कल्याण के लिए एक मंदिर का निर्माण करें, तथा उसमें प्रतिमा स्थापित करें। स्वप्नादेशानुसार राजा जगतपाल ने मंदिर का निर्माण किया। किन्तु प्राण प्रतिष्ठा के लिए सिद्ध मूर्ति प्राप्त नहीं कर सका। अब तक राजिम तेलिन के जीवन में घटी चमत्कार की कहानी सर्वत्र फैल चुकी थी। प्रेरणा मिली। उसके मन में इसी मूर्ति को नवनिर्मित मंदिर में थापित करने का संकल्प जागा। अतः राजिम तेलिन से मूर्ति की याचना की मुंह मांगा इनाम देने का प्रलोभन भी दिया। डा. विष्णु सिंह ठाकुर ने रायपुर गजेटियर का हवाला देते हुए लिखा है। कि प्रलोभन वश राजिम ने मूर्ति भार सोना लेना स्वीकार कर लिया। मूर्ति तुला पर रखी गई तो उसे आश्चर्य हुआ कि मूर्ति का भार तृण मात्र भी नहीं रहा है। उसने मूर्ति राजा को अर्पित कर दी। किन्तु इस कथन में सत्याश का अभाव परिलक्षित होता है। क्योंकि एक भक्त कभी अपने आराध्य के बदले में कुछ नहीं चाहता है। दूसरी बात राजाज्ञा थी, जसे राजिम तेलिन उल्लघन नहीं कर सकती थी, तीसरी उस श्री विग्रह के प्रताप से अब तक वे काफी धनवान हो चुके थे चौथी बात यह कि स्वयं राजिम तेलिन चाहती थी, कि उसके इस आराध्य के अनेक भक्त बन जावें और पांचवी बात यह कि एक सुदृढ हाथों में सौप कर वह आश्वस्त होना चाहती थी तथा अंतिम बात यह भी कि उसकी भक्ति समर्पण की थी। इस प्रकार से वह टिप्पणी अन्यथा विस्तार का पर्याय मात्र है । बल्कि इस तेली कुल गौरव ने जब राजा से चौबीस घण्टे की मुहलत मांगी। तब कहा जाता है कि रात्रि में उसने ईश्वर का आदेश प्राप्त किया था। उसी रात्रि तेलीन ने मात्र एक ही वरदान मांगा था। कि अब से भगवान तो राजा के हाथ में सुरक्षित हो जायेंगे। अतः उन्हें यह वरदान दिया जाये कि भगवान के नाम के आगे उनका भी नाम चलेगा। राजा को यह वाणी गुंजित हुई थी और इसी शर्त पर राजिम तेलिन ने वह मूर्ति राजा जगतपाल को सौंप दी थी उसी दिन से भगवान विष्णु अब श्री राजिम लोचन के नाम से पुकारे जाने लगे।
यद्यपि पूर्वोक्त दो जनश्रुतियों से विद्वानों में कुछ मतभेद है किन्तु इसकी स्वीकृति के लिए तथ्य प्रमाण रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं -
1. इस कथा में उल्लिखित राजा जगतपाल को ऐतिहासिक पुरूष माना जाता है जिसकी। तुलना सामंत जमीदार जगतपाल देव से की जा सकती हैं, जिसका शिलालेख राजिम लोचन मंदिर के महामण्डप की पार्श्वभत्ति में जुड़ हुआ है ।
2. राजिम लोचन मंदिर के सामने राजेश्वर एवं दानेश्वर मंदिर के पीछे तेलिन मंदिर के नाम से प्रसिद्ध देवगृह भी हैं जो कि राजिम तेलिन संबंधी जनश्रुति की ऐतिहासकता को प्रमाणित करता है।
इसी परिप्रेक्ष्य में इतिहासकार रायबहादुर हीरालाल ने यह मत व्यक्त किया है कि यदि राजिम तेलिन से संबंधित इस जनुश्रुति के मूल में ऐतिहासिक सत्यांश है तो स्वीकार करना पड़ेगा कि वह अपने आराध्य भगवान राजीवलोचन के सामने सती हुई थी (रायपुर डिस्ट्रिक्ट गजेटियर 1909 पृष्ठ 333)।
इस प्रकार से पूर्वोक्त मनीषियों के अनुमान से निश्चय ही राजिम नामकरण हमारे वंश की गौरव भक्त शिरोमणि माता राजिम के नाम पर है, ऐसा कहा जा सकता है। और यही मान्यता प्रचलित भी है। ऐसे ही संदर्भ में हमें भक्तिन तेलिन मंदिर की ऐतिहासिकता पर भी विचार कर लेना युक्तिपूर्ण होगा। प्रथममेव तो यह राजिम तेलिन के निस्वार्थ प्रेम का ही प्रतीक है कि देवप्रतिमा जगतपाल महाराज को जनकल्याण हेतु अर्पित कर दी। वह प्रतिमा, अंग्रेज इतिहासकार तथा वर्तमान के प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. के. डी. वाजपेयी सागर के अनुसार मंदिर निर्माण से पूर्व निरूपित है। द्वितीयतः तेलिन मंदिर के गर्भगृह में जो सती स्तम्भ है वह भक्त राजिम की प्रमाणिकता के लिए सत्य समाहित किए हुए है। इससे अधिक और क्या प्रमाण दे कि विष्णु की प्रतिमा में तेल अर्पित करके (घानी का शुद्ध तेल प्रतिमा में चूपडकर) राजिम व्यवसाय प्रारम्भ करती थी वह आज पर्यन्त निरंतर परम्परा रूप से चली आ रही है ।
भगवान राजिमलोचन के मंदिर का निर्माण काल शिलालेख के अनुसार ए. कनिंघम ने 8 वीं 9वीं शदी माना है। डा. व्ही. व्ही. मिराशी नागपुर ने इसे 7 वीं शदी माना है तथा अधिकांश विद्वान डा. मिराशी के अभिमत को मान्यता देते हैं। तो क्या तेलिन मंदिर भी इसी काल में निर्मित हुआ है? यह सत्य है कि पंचायत शैली में निर्मित राजिमलोचन मंदिर के चारों प्रकारों में विष्णु अवतार के मंदिर निर्मित किए गए है वे है (1) बद्रीनारायण मंदिर उत्तर (2) वामन मंदिर दक्षिण (3) बाराह मंदिर पूर्वी (4) नृसिंह मंदिर उत्तर पश्चिमी । ऐसे लगता है कि राजिमलोचन मंदिर जो एक जगती पर स्थित है के पश्चात इन देवालिकाओं का निर्माण किया गया है। राजिमलोचन मंदिर तथा तेलिन मंदिर के मध्य पर्याप्त जगह रिक्त थी। संभवतया अपने आराध्य की ओर सम्मुख किए भक्तिन समाधीस्थ हुई। तेलिन मंदिर का दरवाजा पूर्वाभिमुख है। और इन दोनों के बीच स्थित रिक्त स्थान में रामचन्द्र, राजशेखर दानेश्वर तथा जगन्नाथ के मंदिर का निर्माण किया गया। पूर्वोक्त सभी मंदिर राजिमलोचन मंदिर के पश्चात निर्मित है यह पूर्व में सिद्ध हो ही चुका है अतः तेलिन मंदिर का निर्माण देविलकाओं के निर्माण के साथ ही किया गया होगा ऐसा विदित होता है। डा. विष्णु सिंह ठाकुर रायपुर के मतानुसार चारों देवलिकाए, राजशेख, दानेश्वर, तेलिन मंदिर रामचन्द्र मंदिर ये सभी 8 मंदिर 8 वीं शदी से लेकर 15 वीं शदी के मध्य तक बने हैं। | सम्प्रति निम्नांकित आधार पर भी कह सकते हैं कि तेलिन मंदिर (मात्र गर्भगृह) का निर्माण पर्याप्त प्राचीन तथा संभवतया देवलिकाओं के समय किया गया है क्योंकि:
1. भक्तिन तेलिन मंदिर का पूर्वोक्त मंदिरों के साथ लिया जाता है।
2. भक्तिन तेलिन मंदिर में गर्भगृह मात्र है । वह सती मंदिर हैं जहां सात्विक भाव आवश्यक है, अतः महामण्डप का निर्माण नहीं किया गया, आराध्योन्मुख, द्वार मात्र रखा गया। यह ऐतिहासिक निर्मित परंपरागत है।
3. स्मारक मंदिर सतीस्तम्भ के रूप में निर्मित होने के कारण भी महामण्डप का निर्माण नहीं किया गया।
4. वर्तमान तक राजिमलोचन मंदिर, रामचंद्र मंदिर और तेलिन मंदिर ही केवल प्रदक्षिणा पथ युक्त है, जो स्वाभाविक हैं क्योंकि रामचन्द्र मंदिर के निर्माण के समय ही तेलिन मंदिर का निर्माण किया गया और रामचन्द्र मंदिर तथा देवलिकाए समकालीन मानी गई है।
5. पूर्वोक्त 8 मंदिरों के शीर्ष स्थान नागर शैली के है।
6. भक्तिन तेलिन मंदिर का शीर्ष आमलक युक्त शीर्ष नहीं रखा गया है, ऐसे ही कुलेश्वर आदि मंदिरों के है।
7. तेलिन मंदिर का वितान ही इसके प्राचीन निर्मित का प्रतिनिधित्व करते हैं। जो समकालीन मंदिरों में भी दृष्टिगत है ।
8. इतिहासकार डा. विष्णु सिंह ठाकुर इसे कल्चुरिकालीन मंदिर मानते है ।
पूर्वोक्त प्रमाण यह सिद्ध करते हैं कि तेलिन मंदिर भी पर्याप्त प्राचीन है। भले ही यह प्रश्न किया जाए कि इसका उल्लेख शिला लेख, ताम्रलेख आदि में क्यों नहीं किया जाता। ध्यान रहे कि कहीं भी राजिम नाम तक का भी उल्लेख नहीं किया गया है। शायद सबसे पहले रायपुर में प्राप्त शिलालेख में जिसे डा. भालचन्द्र जैन ने 14 वीं शदी का माना है। महाराज राजिवनयन द्वारा एक जगन्नाथ मंदिर और एक सुदृढ़ शम्भु मंदिर के निर्माण का उल्लेख है। और फिर भगवान के श्री चरणों में अपना सब कुछ अर्पित करने वालों को नाम की चिन्ता नहीं। कालांतर में राजाओं ने तेलिन मंदिर का निर्माण कर दिया यही क्या कम है। राजाओं की बात अलग है। प्राण प्रतिष्ठा के लिए अर्पित प्रतिमा का महत्व अलग है । यह तथ्य भी विचारणीय है कि मंदिर का निर्माण नलवंशीय राजा विलासतुंग ने किया था। वह भी अपने स्वर्गीय पुत्रों की पुण्यवृद्धि के लिए विष्णु का यह ऊंचा स्थान बनाया तथा भावी नरेशों को इसकी रक्षा करने का निर्देश भी दिया। यह शीला - पट्ट भी राजिम लोचन मंदिर की भित्ति पर स्थित है, ऐसी स्थिति में श्रम एवं साधना की देवी भक्तिन राजिम को विस्मृत किया गया तो कोई अत्युक्ति पूर्ण बात नहीं हुई ।
इसी तरह तेलिन मंदिर के गर्भगृह में अवस्थित प्रतीक भी इसकी ऐतिहासिकता एवं भक्ति साधना को प्रदर्शित करते हैं कि वह पूजार्थ एक शिलापट्ट ऊंची वेदी पर पृष्ठ भित्ति से सटाकर रखा हुआ है। इसके सम्मुख ऊपरी भाग पर खुली हथेली सूर्य चंद्र एवं पूर्ण कुम्भ की आकृतियां रूपाक्रित है, नीचे एक पुरूष और एक स्त्री को सम्मुखाभिमुख पदमासन में बैठी एंव हाथ जोड़ी प्रार्थना की मुद्रा में प्रतिमाये उत्खचित हैं, इसके दोनों पाश्व में क्रमश: पारिचारिका मूर्ति है। शिला पट्ट के मध्य भाग में जुए में जूते बैलयुक्त कोल्हू का रूपांकन हैं।
वस्तुतः टी.ए, गोपीनाथ राव (एजीमेटस आफ हिन्दू आईकोनोग्राफी पृष्ठ 2781) के अनुसार यह सती स्तम्भ है जिसमें अज्ञान और माया के वशीभूत जीव की दशा का चित्रण कोल्हू और बैल को प्रतक मानकर किया जान पड़ता है। तथा धर्म चरण से ही मोक्ष पद प्राप्त हो सकता हैं। इस शाश्वत संदेश की अभिव्यक्ति है। भारतीय प्रतीक विज्ञान में वृषम का संबंध धर्म के स्थापित किया गया है। (निरूवत 3।1।6) कोल्हू का अधोभाग शिवतत्व की भी स्थाणु रूप से कल्पना की गई है। वहीं कोल्हू एवं बैल हमारे व्यवसाय के प्रतीक हैं।
कुछ लोगों का मत है कि प्रतिमा को मंदिर में स्थापित होने के बाद भक्तिन राजिम भगवत भक्ति में प्रमत्त हो चुकी थी और निरंतर घण्टों वह प्रतिमा को निहारा करती थी और संभवतया इसी अवस्था में ब्रम्हलीन हुई होगी। यही कारण है कि भक्तिन मंदिर एक ही परकोटे में अवस्थित है वहीं जनश्रद्धा के परिवेश में सत्ती स्तम्भ का स्वरूप दे राजिम तेलिन की भक्ति भावना को अभिव्यक्त किया है। यह घटना ईसा की चौदहवी पंद्रवही शदी की है ऐसी मान्यता है। वस्तुतः सही तिथि और वार के संबंध में प्राप्त कोई भी अभिलेख, ताम्रलेख, शिलालेख स्पष्ट नहीं करते हैं। फिर भी प्राप्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि
1. राजीव लोचन प्रतिमा मूर्ति ही राजिम तेलिन द्वारा प्राप्त भगवान विष्णु का श्री विग्रह हैं।
2. यह मंदिर निर्माण से पूर्व रूपायित एवं प्राचीन हैं ।
3. राजिम तेलिन ने ईश्वरादेश भक्ति प्रताप से ही इसे जन कल्याण भावना से राजा जगतपाल को सौंप दिया था। 4. राजीव का पर्याय या पश्चात राजिम नहीं अपितु भक्तिन राजिम तेलिन के नाम से ही यह ग्राम बसा हुआ है ।
5. राजा जगतपाल ने अपने वचन का पालन करते हुए सती स्तम्भ रूप में भक्तिन मंदिर का निर्माण कराया था ।
6. तब से आज पर्यन्त भगवान राजिम लोचन में शुद्ध तेल चुपड़ने चढ़ाने की परम्परा है ।
7. अनन्य भक्ति में लीन राजिम तेलिन ने प्रतिमा के समक्ष ही श्री चरणों में पूर्ण समाधि ली थी।
8. राजिम भक्तिन तेलिन का उल्लेख प्राचीन दस्तावेज जनश्रुति एवं प्राप्त पाण्डुलिपियों में होता है। यह लोक कथा में भी प्रसारित है।
9. वर्तमान में इस प्रमाण की वास्तविकता को सभी वर्ग के लोग स्वीकार करते हैं।
10.अब यहां प्रतिवर्ष 7 जनवरी को राजिम जयंती का आयोजन राजिम में किया जाता है। जिसमें साहू समाज के साथ ही अन्य समुदाय के श्रद्धालुजन उपस्थित होकर भक्तिन माता राजिम के त्याग एवं तपस्या को प्रणाम करते है।
इस प्रकार से 14 वीं शदी में ही इस तैलिक कुल कल्याणी राजिम भक्तिन ने ईश्वर दर्शन सभी जाति धर्म के लिए सुलभ कराने का गौरव प्राप्त किया। आज राजिमलोचन के दर्शन के पश्चात परिक्रमा करते हुए श्रदालु भक्त जन इस देवी के सती स्तम्भ तक अवश्य पहुंचकर उनके अनन्य त्याग के प्रति श्रद्धावनत होते हैं। जय राजिम मइया ।