भक्तिन माता राजिम के त्याग को लोग याद करते हैं।
राजिम की सांस्कृतिक ऐतिहासिक एवं आध्यात्मिक उपलब्धि के पीछे एक महान नारी का आत्मोत्सर्ग अनन्य सेवा भाव श्रम एवं साधना का फल जुड़ा हुआ है, भले ही इसे आज विस्मृत कर दिया गया हो अथवा जाति विशेष का कर्तव्य मान प्रबंधक वर्ग निश्चित हो गये हो पर जिस नारी ने निस्वार्थ भाव से अपना सब कुछ अर्पित कर दिया हो उसे नाम की कोई लालसा नहीं थी. उसने आराध्य का साथ मांगा था और अपना प्राणोत्सर्ग भी उन्हीं के श्री चरणों में किया था, आज भी अपने प्रिय भगवान के सामने इस सती की समाधि विद्यमान
हमें इस बात का गौरव है कि भक्त माता परम श्रद्धेय राजिम का असीम स्नेह हमारे, वंश को प्राप्त हुआ. छत्तीसगढ़ की चित्रोपल्ला गंगा (महानदी) की गोद में जन्म लेने वाली भक्त माता राजिम तैलिक वंश शिरोमणि है. प्रमाण के परिप्रेक्ष्य में हमें राजिम की पवित्र भूमि का भ्रमण करना होगा. आइए पुण्य स्नान का लाभ ले सर्वप्रथम ऐतिहासिक पक्ष को दृष्टिगत करें, जिसके लिये लेख, शिलालेख, धातुलेख एवं प्राप्त अवशेषों का सहारा लिया जाता है. राजिम का यह क्षेत्र प्राचीन समय में कमल क्षेत्र के नाम से अभिहित था. उसे ही पदमपुर कहा जाने लगा, इसी परिप्रेक्ष्य में इतिहासकार रायबहादुर हीरालाल ने यह मत व्यक्त किया है कि यदि राजिम तेलिन से संबंधित इस जनुश्रुति के मूल में ऐतिहासिक सत्यांश है तो स्वीकार करना पड़ेगा कि वह अपने आराध्य भगवान राजीव लोचन के सामने सती हुई थी। (रायपुर डिस्ट्रिक्ट गजेटियर 1909 पृष्ठ 333), इस प्रकार से पूर्वोक्त मनीषियों के अनुमान से निश्चय ही राजिम नामकरण हमारे वंश की गौरव भक्त शिरोमणि माता राजिम के नाम पर है, ऐसा कहा जा सकता है. और यही मान्यता प्रचलित भी है, ऐसे ही संदर्भ में हमें भक्तिन तेलिन मंदिर की ऐतिहासिक पर भी विचार कर लेना युक्तिपूर्ण होगा. प्रथममेव तो यह राजिम तेलिन के निस्वार्थ प्रेम का ही प्रतीक है कि देव प्रतिमा जगतपाल महाराज को जनकल्याण हेतु अर्पित कर दी. वह प्रतिमा, अंग्रेज इतिहासकार तथा वर्तमान के प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. के.डी. वाजपेयी सागर के अनुसार मंदिर निर्माण से पूर्व निरूपित है. द्वितीयतः। तेलिन मंदिर के गर्भगृह में जो सती स्तम्भ है वह भक्त राजिम की प्रमाणिकता के लिये सत्य समाहित किए हुए हैं. इससे अधिक और क्या प्रमाण दे कि विष्णु की प्रतिमा में तेल अर्पित करके (घानी का शुद्ध तेल प्रतिमा में चुपड़कर) राजिम व्यवसाय प्रारंभ करती थीं वह आज पर्यन्त निरंतर परम्परा रूप से चली आ रही है. प्रमाण यह सिद्ध करते हैं। कि तेलिन मंदिर भी पर्याप्त प्राचीन है, भले ही यह प्रश्न किया जाए कि इसका उल्लेख शिलालेख, ताम्रलेख आदि में क्यों नहीं किया जाता. ध्यान रहे कि कहीं भी राजिम नाम तक का भी उल्लेख नहीं किया गया है. शायद सबसे पहले रायपुर में प्राप्त शिलालेख में जिसे डॉ. भालचन्द्र जैन ने 14वीं शदी का माना है, इसी तरह तेलिन मंदिर के गर्भगृह में अवस्थित प्रतीक भी इसकी ऐतिहासिकता एवं भक्ति साधना को प्रदर्शित करते हैं कि वह पूजार्थ एक शिलापट्ट ऊंची वेदी पर पृष्ठ भित्ति से सटाकर रखा हुआ है. इसके सम्मुख ऊपरी भाग पर खुली। हथेली सूर्य चन्द्र एवं पूर्ण कुम्भ की आकृतियां रूपाकिंत है, नीचे एक पुरूष और एक स्त्री को सम्मुखाभिमुख पदमासन में बैठी एवं हाथ जोड़ी प्रार्थना की मुद्रा में प्रतिमाये उत्खचित हैं, इसके दोनों पाश्व में क्रमशः पारिचारिका मूर्ति हैं, शिला पट्ट के मध्य भाग में जुए में जूते बैलयुक्त कोल्हू का रूपांकन हैं. अब यहां प्रतिवर्ष 7 जनवरी को राजिम जयंती का आयोजन राजिम में किया जाता है जिसमें साहू समाज के साथ ही अन्य समुदाय के श्रद्धालुजन उपस्थित होकर भक्तिन माता राजिम के त्याग एवं तपस्या को प्रणाम करते हैं. इस प्रकार से 14 वीं शदी में ही इस तैलिक कुल कल्याणी राजिम भक्तिन ने ईश्वर दर्शन सभी जाति धर्म के लिये सुलभ कराने का गौरव प्राप्त किया. आज राजिम लोचन के दर्शन के पश्चात परिक्रमा करते हुए श्रद्धालु भक्त जन इस देवी के सती स्तंभ तक अवश्य पहुंचकर उनके अनन्य त्याग के प्रति श्रद्धावनत होते हैं, जय राजिम मइया.