झांसी की पावन धरती में आज लगग १००० वर्ष पहलेए बहुत ही सम्पन्न तैलकार रामशाह के यहां सम्वत् १०७३ के चैत्र कृष्ण पक्ष ११ को एक सुकन्या ने जन्म लिया। नामकरण की शुभ समाज की अमर ज्योति भक्त शिरोमणि . माता कर्मा बेला में पिता रामसाह ने अपना निर्णय सुनाया कि मेरे सत्कार्यों र्से मुझे बेटी मिली है इसलिए मैं उनका नाम कर्माबाई रखूंगा। चंद्रमा की सोलह कलाओं की तरह कर्मा बाई उम्र की सीढ़ियां पार कर गई। परिवार से धार्मिक संस्कार तो मिला ही था इसलिए बचपन से गवान श्रीकृष्ण के जन.पूजन आराधना में ही विशेष आनंद मिलता था। नियमित रूप से वह अपने पिता के साथ श्री कृष्ण की मूर्ति के सम्मुख जन गाती थी। उसके मनोहर गीत सुनकर भक्तगण झूमने लगते थे और रामसाह के नेत्रों से तो अश्रुधार बह निकलती थी।समय के अनुसार उसका विवाह संस्कार नरवर के प्रसिद्ध साहूकार के पुत्र पदमजी साहूकार के साथ कर दिया गया। पति महोदय के अत्यधिक आमोद प्रियता से किंचित कर्माबाई दुखी रहती थी परंतु पति व्यवहार को शालीनतापूर्वक निभाते हुए यही कोशिश कर रही थी कि पति महोदय जी ईश्र्वर चिंतन की ओर आकृष्ट हो जाए। एक दिन पूजा.पाठ से रुष्ट होकर पति महोदय ने पूछा मैं साफ.साफ कहना चाहता हूं तुम्हें किससे सुख मिलता है पति सेवा में या ईश्र्वर सेवा में। बड़े ही शांति स्वर में कर्माबाई ने कहा. मुझे वही कार्य करने में सुख मिलता है जिसमें आप प्रसन्न रहें। यही पत्नी का धर्म है। यह सोचकर कि मेरे पतिदेव मेरे उत्तर से संतुष्ट हो गए हैं कर्मा जी ने आँखें बंद कर ली और ईश्र्वर में ध्यानस्थ हो गईं कर्मा जी के पति के मन में आया कि इनकी जरा परीक्षा ली जाये और उन्होंने भगवान कृष्ण की मूर्ति को छिपाकर अन्यत्र रखी ही थी कि आँख बंद किये ही कर्मा जी ने कहा. ऐसे क्यों अनर्थ करते हैं प्रिये! भगवान कि प्रतिमा को उसकी ठौर में ही रख दे! पति अवाक् थे ! उन्होंने मूर्ति जहाँ की तहां रख दी अब उनके मन की शंका निर्मूल हुई और कर्मा की साधन के प्रति न उनका अनुराग बढा अपितु उनका हृदय ही बदल गया इस प्रकार अपने शांत धार्मिक प्रवृत्ति पत्निव्रता धर्म से अपने पति के हृदय में भगवान के प्रति अनुराग पैदा करने में सफल रही। समय के साथ सुखी जीवन में पुत्र.रत्न की प्राप्ति हुई।इसी समय कर्मा माता की परीक्षा की दूसरी घड़ी आई। नरवर के नरेश के प्रिय सवारी हाथी को असाध्य खुजली का रोग हो गया। बड़े -.बड़े राजवैद्यों की नाडी ठंडी हो गई। इसी बीच किसी दुष्ट ने राजा को सुझाव दिया कि कुण्ड तेल में हाथी को नहलाया जाए तो हाथी पूर्णरूप से ठीक हो जाएगा। फिर क्या था राजा का आदेश तुरंत प्रसारित किया गया। महीना कुण्ड भरा न जा सका। नरवर के जागरूक सामाजिक नेता होने के कारणए पति महोदय का चिंतित होना स्वाभाविक था। पति को चिंतित एवं कारण जानकर कर्मा माता भी चिंतित हो गई।सारे तैलिक समाज को बचाने के लिएए भगवान श्रीकृष्ण को अंतरात्मा से पूरी आवाज लगा दी। सचमुच ही भगवान की लीला से कुण्ड भर गया सारा आकाश भक्त कर्मा की जय.जयकारों से गूंजने लगा। उसी समय भक्त कर्मा ने पतिदेव से निवेदन किया कि अब हम इस नर निशाचर राजा के राज में नहीं रहेंगे और सारा तैलिक वैश्य समाज नरवर से झांसी चला गया।
समय चक्र से कोई नहीं बचा है अचानक अस्वस्थता से पति का निधन हो गयाए पति के चिता के साथ सती होने का संकल्प कर लिया। इसी समय आकाशवाणी हुई। यह ठीक नहीं है बेटी तुम्हारे र्गर्भ में एक शिशु पल रहा है समय का इंतजार करो मैं तुम्हें जगन्नाथपुरी में दर्शन दूंगा। समय के साथ घाव भी भर जाते हैं कुछ समय बाद दूसरे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। तीन चार वर्ष बीतते.बीतते बार.बार मन कहता था मुझे भगवान के दर्शन कब होंगे। निदान एक भयानक रात के सन्नाटे में भगवान को भोग लगाने के लिए कुछ खिचड़ी लेकर पुरी के लिए निकल पड़ी। चलते-.चलते थककर एक छांव में विश्राम करने लग गई आंख लग गई आंख खुली तो माता कर्मा अपने आपको जगन्नाथपुरी में पाई।आश्र्चर्य से खुशी में भक्ति रस में डूबी खिचड़ी का प्रथम भोग लगाने सीढियों की ओर बढ़ी । उसी समय पूजा हो रही थी। पुजारी ने माता कर्मा को धकेल दिया इससे माता कर्मा गिर पड़ी । रोते हुए माता कर्मा पुकारती है. हे! जगदीश आप पुजारियों की मरजी से कैद क्यों है आपको सुनहरे कुर्सी ही पसंद है क्यों तुरंत आकाशवाणी हुई कर्मा मैं प्रेम का भूखा हूं। मैं मंदिर से निकल कर आ रहा हूं।भगवान् की मूर्ति को मन्दिर में अपने स्थान से गायब देखकर ब्राह्मणों में हाहाकार मच गया। भगवान श्रीकृष्ण कर्मा के पास आए और बोले. कर्मादेवी मुझे खिचड़ी खिलाइए। माता कर्माभाव वीभोर होकर खिचड़ी खिलाने लगी। भक्त माता को भगवान ने कहा. हम तुम्हारे भक्ति से प्रसन्न हो गए हैं कुछ भी वरदान मांगो। माता ने कहा मुझे कुछ नहीं चाहिए बस आप मेरी खिचड़ी काभोग लगाया करें। मैं बहुत थक चुकी हूं मुझे आपके चरणों में जगह दे दीजिए। इस प्रकार भगवान के चरणों में गिरकर परमधाम को प्राप्त हो गई। तब से भगवान जगन्नाथ को नित्य प्रतिदिन खिचड़ी का भोग आज तक लग रहा है। वही खिचड़ी जो महाप्रसाद कहलाती है।