- राम लाल गुप्ता, दल्ली राजहरा दुर्ग (छत्तीसगढ़)
संसार की कोई भी जाति या समाज लीक से चलकर बुलंदियों तक नहीं पहुँचा। दुनिया का चाहे कोई व्यक्ति राष्ट्र, समाज या कोई व्यक्ति हो जब भी लीक छोड़कर आगे बढ़ा तो उसने एक नई ऊँचाई को छुआ।
हमारे तैलिक जाति के साथ भी एक ऐसी ही बिडम्बना है। वह काफी हद तक लीकवादी एवं रूढ़िवादी है। फलस्वरूप प्रगतिशील विचारों की शून्यता के कारण जिस गति से तैलिक जाति को आर्थिक, राजनैतिक, शैक्षिक क्षेत्रों में आगे बढ़ना चाहिये, वह नहीं बढ़ पा रही है। अपने पूर्वजों को जैसा करते देखते आए हैं, हम बगैर किसी तरह का प्रश्न या सोच विचार किए उस पर चलते चले जा रहे हैं। हम काफी हद तक दिशाहीन एवं लक्ष्यहीन यात्री की तरह चलते चले जा रहे हैं। जो सीमित मात्रा में शिक्षित एवं प्रगतिशील सोच के लोग हैं, वे भी कोई मुसीबत झेलने या विरोध व्यक्त करने के बदले रूढ़िवादी बुजुर्गों की हाँ में हौं मिलाने में ही अपनी भलाई समझते हैं।
प्रश्न है कि आखिर हमारी जाति अभावग्रस्त, असम्मानजनक एवं अधिकारविहीन जीवन कब तक जियेगी। क्या कोई बदलाव की सम्भावना है। अगर है तो कैसे और कब। अगर नहीं है तो क्यों नहीं है। आइए इस गंभीर समस्या पर विचार करें।
हमारे जातीय संगठन - हमारी जाति की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि धरातल स्तर से उच्च स्तर तक हमारे संगठन बने हुए हैं। राष्ट्रीय स्तर पर हमारे सम्मेलन भी होते हैं। राष्ट्रीय सम्मेलनों में जितनी गम्भीर चर्चा होनी चाहिये, उतनी गम्भीरता का परिचय हमारे राष्ट्रीय स्तर के नेता नहीं दे पा रहे हैं। बेहतर होता कि यदि हम राष्ट्रीय स्तर पर न्यूनतम एक पूर्ण कालिक कार्यकर्ता नियुक्त कर पाते। जो हर प्रान्त में जाकर राज्य स्तर पर संगोष्ठियों के द्वारा पूरे राज्य के अपनी जाति के समस्याओं पर गम्भीर चर्चा कर अवनति के कारण, आगे न बढ़ पाने के कारण पर इसके अतिरिक्त जो भी विकास के अवरोध है, उन्हें ढूंढते और चर्चा कर समाधान का रास्ता निकालते। हमारी जाति इतनी दीन हीन भी नहीं है कि वह प्रान्तीय स्तर पर एक पूर्णकालिक वैतनिक कार्यकर्ता का खर्च न उठा पाए। जरूरत दृढ़ इच्छा शक्ति की है।
हमारी जातीय पत्रिकाओं की भूमिका - पूरे भारत में जिस तरह अनुसूचित जाति की सैकड़ों पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं। उस तरह पिछड़े वर्ग की पुरे भारत में शायद एक भी पत्रिका वैचारिक दृष्टि से प्रकाशित नहीं होती। हमारी जातीय पत्रिकाओं की भूमिका कई गुना बढ़ जाती है। आज भी भारत में पिछड़े वर्गों का आन्दोलन सबसे कमजोर आन्दोलन है। ऐसे में हमारी स्वजातीय पत्रिकाओं को न सिर्फ अपनी जाति की बल्कि समस्त पिछड़े वर्ग आधारित वैचारिक सामग्रियों को प्रमुखता से प्रकाशित करना चाहिये। वैचारिक दृष्टिकोण से हमारी जाति गरीबी रेखा के नीचे है। तैलिक जाति की आज दर्जनों पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं। अगर सभी पत्रिकाओं में हम प्रगतिशील वैचारिक लेखों के साथ वैचारिक लेखकों की पुस्तकों के अंश भी प्रकाशित कर समाज को प्रगतिशील विचार देवें, तो यह एक अच्छी परम्परा होगी। बगैर प्रगतिशील विचार के कोई भी समाज आगे नहीं बढ़ सकता।
मूल जड़ों से अनावश्यक लगाव न रखें - यदि हमें पैतृक मूल जगहों पर अपनी जरूरतों को पूरा करने में कठिनाई अनुभव हो रही हो या मान-सम्मान का अभाव हो या कृषि पर्याप्त न हो, तो उस स्थान को छोड़ने में हमें कतई हिचकिचाना नहीं चाहिये। जो अपने मूल स्थान से जितनी दूर गया उसने उतनी ही अधिक तरक्की की।
आज तरक्की शहरों में सिमट गई है। ग्राम उपेक्षित पड़े हुए हैं। प्रगति एवं विकास का लाभ 95 प्रतिशत हिरसा शहरों में ही सिमट गया है।
हमारे सामाजिक संगठनों को चाहिए कि वे उपेक्षित सामाजिक भाइयों को पूर्ण सहयोग देकर शहरों में बसाएं। भारत के प्रत्येक शहर में हमारा एक "संत माँ कर्मा नगर" होना चाहिए।
प्रगतिशील संस्थाओं से सम्पर्क बढ़ायें - हमारी जीवन पद्धति कुंए एवं तालाब के मेंढक की तरह न होकर समुद्र की मछली जैसा होना चाहिये।
हमें अधिक से अधिक प्रगतिशील जातियों, प्रगतिशील विचारकों, प्रगतिशील साहित्यकारों से सम्पर्क बढ़ाने का प्रयास करना चाहिये।
आधुनिकता के हिसाब से लोगों की जरूरतों को दृष्टिगत रखकर व्यापार एवं व्यवसाय की ओर भी हमारा रुझान होना चाहिये।
हमारी पूरी जीवन पद्धति में प्रगतिशीलता का समावेश हर दृष्टिकोण से होना चाहिये। तभी हम एक नए समाज का निर्माण कर पाएंगे।