राजिम भक्तिन माता की जीवन यात्रा

     राजिमधाम की अधिष्ठात्री देवी माता राजिम छत्तीसगढ़ के गरियाबंद जिले में स्थित राजिम नगर को प्राचीन काल में पद्मावतीपुरी और कमल क्षेत्र के नाम से जाना जाता था। ईसवी सन की चौथी - पांचवीं सदी में हैहयवंशी राजा जगतपाल के काल में तैलिक वंश की दिव्य नारी पद्मावती के पुण्य स्मरण में नगर का नाम पद्मावतीपुरी पड़ा था । इसी तरह हैहय - कलचुरी वंश के प्रतापी कमल राज 10 वीं सदी में कलिंग के राजा हुए थे तब यह क्षेत्र भी कलिंग राज्य के अधीन था इसलिए कमल क्षेत्र कहलाया । छत्तीसगढ़ का यह तीर्थ तीन नदियों क्रमशः उत्पलेश्वर (महानदी) प्रेतोद्धारिणी (पैरी) और सुंदराभूति (सोंढूर) के संगम के तट पर बसा है । इन तीन नदियों की जल धारा के संगम से निर्मित वृहद नदी चित्रोत्पला कहलाती है । राजिम तीर्थ पुरातन काल से ही सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक समरसता का वैभवशाली केंद्र रहा है। इस पवित्र स्थान में भगवान श्री कंठ (नीलकंठेश्वर महादेव) और श्री विष्णु (श्री वत्स) का संगम भी है इसलिए इसे प्राचीन काल में "श्री संगम" नाम दिया गया था और यह शब्द कोल्हेश्वर महादेव मंदिर से प्राप्त प्राचीन शिलालेख में अंकित है। कपिल संहिता में प्रेत कर्म के लिए इस संगम को पवित्र माना गया है। संस्कृति संगम होने के कारण इस क्षेत्र में सभी जाति और वंश के लोग बिना किसी भेदभाव और जातीय द्वेष के सद्भावना पूर्वक रहते हैं। चित्रोत्पला (महानदी) एवं उत्पलिनी (तेल नदी) घाटी का कछार तिलहन उत्पादन के लिए उर्वरा भूमि थी इसलिए यहां तैलिक वंश की आबादी अधिक थी और आर्थिक समृद्धि के कारण सामाजिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से वे उन्नत थे । चित्रोत्पला एवं उत्पलिनी नदी के माध्यम से गोदावरी नदी के मुहाने तक तेल का परिवहन होता था ।

Rajim Bhaktin Mata ki Jivan Yatra    गोदावरी नदी के तट पर बसे राजमहेंद्री तेल का सबसे बड़ा व्यापारिक केंद्र था, वहां तेल का विशाल वापी था । राजमहेंद्री चालुक्य राजाओं की राजधानी थी और राजा युद्धमल द्वारा तेल के वापी में हाथी स्नान का उत्सव कराया जाना इतिहास प्रसिद्ध है । पद्माव पुरी में धर्म देव नामक समृद्ध तेल व्यापारी निवास करते थे जो उदार हृदय के स्वामी थे । वे अपने विपुल धन का सदुपयोग दीन-दुखियों की सेवा एवं परमार्थिक कार्यों में करते थे । उन्होंने अपनी आर्थिक संसाधनों से सम्पूर्ण नदी घाटी क्षेत्र में परिवहन के सुगम साधनों को विकसित किया था इसलिए उनकी कीर्ति आलोकित हुई थी । धर्म देव की पत्नी का नाम शांति देवी था जो धार्मिक संस्कारों वाली विदुषी थीं। उनका दाम्पत्य जीवन सुखमय था किंतु संतान की कमी ने उन्हें दुखी बना दिया था । संतान प्राप्ति की कामना से दोनों भगवान विष्णु की नित्य व्रत उपासना करते थे । उन्हें ईश्वरीय कृपा और सुकर्मों का फल भी मिला। शांति देवी ने संवत 1172 माघ पूर्णिमा दिन सोमवार तदनुसार सन् 1116 की रात्रि में सुंदर कन्या को जन्म दिया। नवजात कन्या की आभा देव कन्या की भांति तेजोमय थी। तेजस्वी कन्या के जन्म से प्रसन्न होकर धर्म देव ने निर्धनों को दान-पुण्य देने के साथ साधु-संतों को अपने निवास में आमंत्रित कर सेवा सत्कार किया। श्री संगम के ऋषिगण कन्या की दिव्यता से प्रभावित हुए और आशीर्वाद प्रदान करते हुए राजिम नाम दिया।

    बालिका राजिम बड़ी होने लगी। उसकी बाल क्रीड़ाएं सबके मन को मोहने लगी। जब वह छ: वर्ष की हुई तब धर्म देव ने उसे चित्रोत्पला के तट पर स्थित लोमष ऋषि के गुरुकुल आश्रम में विद्या अध्ययन के लिए भेजा । बालिका राजिम तीक्ष्ण बुद्धि वाली प्रतिभाशाली कन्या थी इसलिए शीघ्र ही गुरु की प्रिय शिष्या बन गई । वह वेद, वेदांग एवं आयुर्वेद की विधाओं में पारंगत हो गईं। बालिका राजिम अपने माता-पिता की तरह भगवान विष्णु की उपासक थी और गुरुकुल में संतों के सत्संग से विष्णु के महात्म्य को भलीभांति जान गई थी। पद्मावती पुरी में ही रतन देव तैलिक व्यापारी रहते थे । धर्म देव के वे व्यापारिक सहयोगी और मित्र थे । एक बार रतन देव का बैल बीमार हुआ जिसे देखने धर्म देव अपने मित्र के घर अपनी पुत्री राजिम के साथ गये । राजिम ने बीमार बैल का औषधियों द्वारा उपचार की विधि बताई जो कारगर सिद्ध हुई और उसके वैद्यकीय ज्ञान की चर्चा नगर में होने लगी। रोग ग्रसित लोगों की भीड़ धर्म देव के घर एकत्र होने लगी और राजिम वनौषधियों के प्रयोग से सभी को रोग मुक्त करने लगी। इस प्रकार राजिम की ख्याति चहुंओर फैलने लगी । बेटी के किशोर वय को पार होता देख माता-पिता को अपने कर्तव्यों का स्मरण होने लगा और वे योग्य वर की खोज करने लगे । धर्म देव अपने मित्र रतन देव के पुत्र अमर देव को उपयुक्त पाकर पत्नी से विमर्श किया, शांति देवी को भी संबंध उचित लगा । वे वैवाहिक प्रस्ताव लेकर रतन देव के घर गये। रतन देव और उनकी पत्नी सत्यवती ने दोनों का आत्मीय सत्कार किया । धर्म देव ने जब अपने आगमन का प्रयोजन बताया तब रतन देव को सुखद आश्चर्य हुआ। रतन देव और सत्यवती ने राजिम जैसी गुणवान कन्या को पुत्रवधु बनाने के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लिया।

    16 वर्ष की आयु में सन 1133 में वैदिक रीति-रिवाज से राजिम और अमर देव का विवाह संपन्न हुआ । राजिम को सास सत्यवती और ससुर रतन देव से माता-पिता जैसा स्नेह मिला। अमर देव ने भी राजिम के ईश्वर भक्ति को सहर्ष स्वीकार कर संरक्षण दिया। राजिम दांपत्य जीवन में प्रवेश कर ईश्वर भक्ति के साथ अपनी पारिवारिक दायित्वों का भलीभांति निर्वहन करने लगी । राजिम और अमर देव को एक पुत्र और एक पुत्री रत्न की प्राप्ति हुई। राजिम प्रत्येक एकादशी तिथि को व्रत रखकर भगवान विष्णु की पूजा-उपासना करती थी। एक बार एकादशी के दिन सदैव की भांति राजिम प्रातः काल चित्रोत्पला नदी में स्नान के लिए गईं। जैसे ही वह स्नान के लिए नदी में उतरी, एक पत्थर से पैर टकराने के कारण गिर पड़ी। राजिम ने उस पत्थर को जल से बाहर निकाला। पत्थर काले रंग का गोलाकार और चिकना था। राजिम ने उस सुंदर पाषाण को घर लाकर घानी उद्योग कक्ष में विधि-विधान से स्थापित कर दिया । इस विग्रह से सम्बंधित एक जनश्रुति यह भी है कि कांकेर के कंडरा राजा ने जगन्नाथ पुरी की यात्रा से वापस आते समय पद्मावतीपुरी के मंदिर में भगवान के दिव्य स्वरूप का दर्शन किया। राजा भगवान के विग्रह पर मोहित हो गया और उसे कांकेर ले जाने का निश्चय कर लिया। जब वह विग्रह को ले जाने लगा तब वहां के भक्तों और नगरवासियों ने विरोध किया । राजा और भक्तों के बीच संघर्ष हुआ जिसमें राजा विजयी हुआ और विग्रह को जल मार्ग से ले जाने लगा । राजा का नाव जब रुद्री घाट पहुंचा तब सहसा बवंडर उठा और नाव नदी में डूब गई। कंडरा राजा की किसी तरह जान बच गई, लेकिन विग्रह नाव के साथ नदी में डूब गया । वही विग्रह महानदी में बहते हुए पुन: पद्मावतीपुरी पहुंचा जो राजिम माता को मिला था। लंबी दूरी तक नदी के बहाव में लढ़कने के कारण विग्रह की आकृति क्षीण हो गई थी ।

    राजिम नित्य प्रति उस विग्रह का पूजन करने लगी और उसे श्रद्धापूर्वक लोचन भगवान संबोधित करने लगी थीं । उस विग्रह के प्रभाव से रतन देव का परिवार धन-धान्य से शीघ्र ही परिपूर्ण हो गया । उसी समय रतनपुर के कलचुरी राजा के दुर्ग के सामंत राजा जगपाल देव को स्वप्न में ईश्वरादेश हुआ कि वे पद्मावती पुरी में उनके लिए भव्य मंदिर का निर्माण करे । आदेशानुसार राजा ने भव्य मंदिर का निर्माण कराया । राजा को नवनिर्मित भव्य मंदिर के लिए भगवान की दिव्य मूर्ति आवश्यकता थी । तब तक माता राजिम के घानी उद्योग में स्थापित चमत्कारी विग्रह की बात पूरे नगर में फैल चुकी थी। कुछ लोगों ने राजा को सुझाव दिया कि वह इस भव्य मंदिर में देव स्थापन के लिए माता राजिम से मिलें। राजा अपनी पत्नी रानी झंकावती को लेकर माता राजिम के पास लोचन भगवान का विग्रह मांगने गये । राजा द्वारा विग्रह मांगने पर राजिम के आंखों के सामने अंधेरा छा गया और निशब्द होकर रह गईं। राजिम अपने आराध्य लोचन भगवान को त्याग नहीं सकती थी लेकिन उसे राजज्ञा का पालन भी करना था । राजा ने विग्रह के भार के बराबर सोना देने का प्रस्ताव देकर वजन कराया। जब सोने का भार विग्रह के भार से कम हो गया तब उसने रानी के सारे गहने उतारकर तराजू में चढ़ा रख दिया । फिर भी पलड़ा बराबर नहीं हुआ । राजिम की दृष्टि रानी के नथ की ओर पड़ती है। तब राजा रानी का नथ लेकर तुला पर चढ़ा देता है तब भी पलड़ा नहीं झुकता । अंत में राजिम माता ने पलड़े से सोने को हटाकर तुलसी की एक पत्ती को तराजू में रख देती हैं और पलड़ा झुक जाता है । इससे राजा को अपने अहंकारपूर्ण व्यवहार का पछतावा होता है।

    माता राजिम ने राजा से कहा कि ईश्वर को सोने से नहीं खरीदा जा सकता, उसे केवल श्रद्धा, भक्ति और पवित्र भाव से ही प्राप्त किया जा सकता है। यह सुनकर राजा और रानी माता राजिम के शरणागत हो गये । राजा के अनुनय-विनय करने पर माता राजिम ने बताया कि 12 वर्ष की निरंतर तपस्या उपरांत लोचन भगवान (नारायण) ने उसे दो वरदान दिए हैं यदि उसका सम्मान करने का वचन दें तो विग्रह को सहर्ष सौंप सकती है। राजा (सामंत) जगपाल देव माता राजिम को मिले दोनों वरदान को दो शर्त के रूप में स्वीकार कर लेता है। पहला यह कि भगवान के नाम के साथ उसका नाम जोड़ा जाएगा और दूसरा नगर का नाम उसके नाम पर रखा जाएगा । इस प्रकार स्थान नाम राजिम और देव नाम " राजिमलोचन" हुआ । राजा जगपाल देव ने माघ शुक्ल अष्टमी (स्थ अष्टमी) बुधवार, दिनांक 3 जनवरी सन 1145 को मंदिर का लोकार्पण किया । राजिम भक्तिन माता को महानदी में जो विग्रह मिला था वह वर्तमान में नलवंशी राजा विलासतुंग द्वारा 7 वीं - 8 वीं सदी में निर्मित नारायण के मुख्य मंदिर के विष्णु प्रतिमा के निकट बाएं ओर थाल में रखा गया है। राजिम माता के मन में लोचन भगवान के प्रति असीम श्रद्धा और विश्वास था, उसके बिना उसका घर सुना हो गया था । वह प्रतिदिन मंदिर की सीढिय़ों पर बैठकर भगवान को एकटक निहारती रहती थी। बसंत पंचमी के दिन राजिम माता राजिमलोचन भगवान के मंदिर के सिंहद्वार पर बैठकर ध्यानस्थ हो गई और उनका ध्यान चिर समाधि में बदल गया। इस प्रकार उन्हें भगवान के सम्मुख निर्वाण की प्राप्ति हुई । छत्तीसगढ़ में राजिम लोचन एकमात्र मंदिर हैं जहां क्षत्रिय पुजारी हैं। माता राजिम ने भक्ति की शक्ति से भक्तों में शिरोमणि का स्थान प्राप्त कर तैलिक वंश का मान बढ़ाया है । राजिम धाम संपूर्ण भारत वर्ष के तैलिक वंश की जीवंत राजधानी के साथ ही छत्तीसगढ़ की संस्कृति, सभ्यता व इतिहास का महत्वपूर्ण केंद्र स्थल बन गया है ।

आलेख संपादन -
घनाराम साहू, सह-प्राध्यापक रायपुर, सहायक - युगल किशोर साहू, बागबाहरा एवं वीरेंद्र कुमार साहू, पांडुका.

दिनांक 14-01-2024 11:14:32
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