तैलिक वैश्य जाति का गौरवपूर्ण कार्य इतिहास के धरोह है जिस समय के झंझावातो ने बिखरने का प्रयास किया । वर्ग संघर्ष की परीघि में धकेलने का भी उपक्रम हुआ । समुचित प्रबंधक के महत्वपुर्ण शक्ति की अद्वुत उर्जा ने नेतृत्व के अभाव अथवा पराभव ने तैलिक वैश्य जाति के सुकार्यो को भी गणना, इतिहास ने नही की । निसंदेह यह हमारे लिए आत्मचिंन्तन का समय है कि वर्तमान मै हम हमारी पहचान को स्वजातीय गौरव को समक्ष रखकर अपनी अस्मिता को और प्रदीप्त करे वह भी वर्तमान के संघर्षपूर्ण अस्तित्व रक्षा के साये में अपनी चमक प्रकाश को आपने तैलिक निस्वार्थ एवं जनहितार्थ कार्यो को आगे बढाते हुये ।
इतिहास के इन्ही सोपानो में ये अग्रतिम नाम है राष्ट्र भक्त दानवीर भामाशाहा इनके ही अनुपम दान त्याग औ कार्यकुशल प्रबंध ने महाराणा प्रताप के स्वभिमान की रक्षा की । यह केवल भामाशाह ही नहीं भारतीय सभ्यता और संस्कृती का वंनीय उदाहरण है ।
ऐसे इहिास पुरूष का जन्म राजस्थान के यीटर परगना के छोटे से गांव छोटी साऊडी (चित्तौडगढ) में 21 अप्रैल 1544 में हुआ । पिता श्री भारमाल शाह प्रसिद्ध व्यपारी एवं राजदरबार के कुशल हितैषी थे । पिता श्री भारमाल शाह अलवर क्षेत्र में तेल का व्यपार करते थे । वे तेल एवं खली के बडे व्यपारी थे । उनकी कुशलता ईमानदारी से प्रभावित होकर चित्तौड के भी महाराणा सांगा ने अलवार से बुलाकर रणथम्थौर ही किल्लेदारी सौंपी । कालांतर में रणथम्थौर मुगलों के आधीन हो जाने पर कुंवर उदयसिंह ने भारमल शाह को एक नई जागीर दी इसी समय भामाशाह का जन्म हुआ था ।
यहां इस प्रसंग में भारमल शाह किे जातीय अस्त्वि का विश्लेषण भी उपयुक्त होगा । श्री भारमल शाह माहुर शाखा के काबडिया गोत्र के थे । माहोर (माहुर) महतो, मुकेरी मारवाडी आदि शाखाओं के तेली जाति के लोग दिल्ली के आसपास राजस्थान क्षेत्र में आधिक निावास करते है । भारमल शाह के प्रभाव के कारण ही कालान्तर मे उन्हें गोडवाग जमीनदारी का शासक भी बनाया था । कुद लागे भामाशाह को ओसवाल महाजन भी मानते है । महाजनों में तेलरा, तेलाब, लिलिट्ट तिलिया गोत्र पाया जाता है जो स्पष्ट रूप से तेली का द्योतक है और राजस्थान मे यह गोत्र तेली जाति में मिलता है । यहां यह भी उल्लेखनीय है कि भामाशाह को कुछ लोग अग्रवाल बनिया भी कहते है । अग्रवालों एवं तेली भाईयों के गौरव पुरुष का नाम धनपाल नामक वणिक था, जो वैश्य जाति का था । इस प्रकार तेली आईल, तिली तेल ओसवाल अग्रवाल महाजनों की शाखाों तेली जाति के ही गोत्र है जो मूलत: व्यपारी वणिक एवं संपन्न कृषक रहें है ।
इसी प्रसंग मे शाह विशेषण पर भी विचार करना उपयोक्त होगा । कुछ लोग इसे राज्य द्वारा प्रदत्त उपाधि मानते है । वास्तव में ऐसा नही है उपाधि तो नाम के प्रारंभ में जोडा जाता है यहां भारमल शाह आदि नाम के अन्त मे होने से । झासीं के रामशाहा जो भक्त शिरोमणि कर्मा माता के पिता श्री थै । जिस प्रकार उत्तर प्रदश बिहार छत्तीसगढ आदि में साहू सर्वाधिक प्रसारित है उसी प्रकार राजस्थान, दिल्ली आदि क्षेत्रों में शाह हमारी जाति सुचक लोकप्रिय शब्द है ।
त्तकालीन राजनैकि परिस्थिती का उल्लेख भी जरूररी है । मेवाड के राणासांगा का प्रभावशाली क्षेत्र राजस्थान रहा है । राजस्थान के रजपुत सदा से ही स्वाधीनताप्रिय रह हैं, इसीलए वे दिल्ली की अधीनता स्वीकार नहीं कये । यह क्रम महाराणाप्रताप और मुगल बादशाहा अकबर के समय भी यथावत संघर्ष चलते रहा है । दिल्ली शासक के लिए राजस्थान की वीर भूति, सदैव आखं की किरकिरी रही है ।
हल्दी घाटी के युद्ध में पराजित महाराणा प्रताप के लिए उन्होंने अपनी निजी सम्पत्ति में इतना धन दान दिया था कि जिससे २५००० सैनिकों का बारह वर्ष तक निर्वाह हो सकता था। प्राप्त सहयोग से महाराणा प्रताप में नया उत्साह उत्पन्न हुआ और उनने पुन: सैन्य शक्ति संगठित कर मुगल शासकों को पराजित कर फिर से मेवाड़ का राज्य प्राप्त किया।
आप बेमिसाल दानवीर एवं त्यागी पुरुष थे। आत्मसम्मान और त्याग की यही भावना आपको स्वदेश, धर्म और संस्कृति की रक्षा करने वाले देश-भक्त के रुप में शिखर पर स्थापित कर देती है। धन अर्पित करने वाले किसी भी दानदाता को दानवीर भामाशाह कहकर उसका स्मरण-वंदन किया जाता है। आपकी दानशीलता के चर्चे उस दौर में आसपास बड़े उत्साह, प्रेरणा के संग सुने-सुनाए जाते थे।
लोकहित और आत्मसम्मान के लिए अपना सर्वस्व दान कर देने वाली उदारता के गौरव-पुरुष की इस प्रेरणा को चिरस्थायी रखने के लिए छत्तीसगढ़ शासन ने उनकी स्मृति में दानशीलता, सौहार्द्र एवं अनुकरणीय सहायता के क्षेत्र में दानवीर भामाशाह सम्मान स्थापित किया है।
उदयपुर, राजस्थान में राजाओं की समाधि स्थल के मध्य भामाशाह की समाधि बनी है।