जाति व्यवस्था का इतिहास पुराना नही है किन्तु वर्ण व्यवस्था प्राचीनतम है संभव है । प्रारंभिक अवस्था में कृषी कर्म ही सभी के लिए सहज रहा। कृषि अवंलबित कार्य में कुशलता भी इसकी पृष्ठभूमि बनी । यहां सत्ययुगीन किवदन्ति को स्वीकार करे तो कोल्हू निर्माण की परिकल्पना प्राचीन रही, जिसमें पेरने के लिए तेल उत्पत्ति के लिए तिल आदि बीज मिले जिससे सहज तेली का आधार कारण हुआ जो तेल एवं खली को उत्पन्न करे वही तेली.
यहां यह मान्सता हे कि तेल जन्म से मृत्युपर्यंत उपयोगी माना गया है वही यह तेल, खाद्य सेव में औशणि निर्माण ें प्रकाशमान पुष्टिवर्धक माना है । अत: इसकी बहुउपयोगिता स्वयं सिद्ध है । वहीं कृषि उत्पादनके साथ पशु संसाधन भी प्रप्ति हैं जो तिलयंत्र में सहयोगी होगा । यहां यह भी दृष्टव्य है कि शुद्ध तेल पवित्र एवं पुश्टि कारक होता है मिलावट संभव नहीं यदि मिले तो तेल उवं तेल बराबर तेल ही संभव है । हां इसकी व्यपकता यहा है कि उन उभी बीजों से तेल निकलना संभव होगा । जिसमें तेलिय तेलधारी, पौधे , बीज तत्व अन्तनिंहित हो यथा, सरसी, अलसी, फल्ली, बरण्य, महुआ, कसुम आदि । तेल पेरने से हिंसा नहीं होती अपितु लक्ष्मीधर कृत दानकृत्य कत्पतरू में तेल दान अत्यंत महत्वपूर्ण है यथा मधु घृत तेल प्रदोनेनारोगम पृ. 260 वही गंगाजल अग्नि और तेल स्वभावत: पवित्र माने जाते है । तेल को भगवान विष्णु को अत्याधिक प्रिय माना है ।
अब इस क्रम तेली पर भी विचार करना सामायिक होगा । तेल में ई प्रत्यय लगाने से निर्मीत शब्द यक्तिक संज्ञा साथ षताभी निरूपित करता है । अर्थात तेली के साथ विशेषता भी निरूपित करता था । अर्थात तेली एम समूह ए जाति एक वर्ग का परिचायक ै । यहां इस पर विचार करेगे कि तेली परिचायक । यहां इस पर विचार करेगे कि तेली को वृति एवं प्रवृतित क्या थी । जैसे कि पूर्व में ही कहा गया है कि कृषि कार्य करते थे, कृषि आधारित कार्य पशुपालन भी संभव है । किन्तु वे तेल पेरने के लिए तेलिया बीजों का संग्रहण कर अपना आर्थिक दायित्व पूरा करते थे । नि:संदेह तेल की उत्पत्ति संग्रह एवं अपना आर्थिक दायित्व पूरा करते थे । नि:संदेह तेल की उत्पत्ति संग्रह एवं विपणन यही कार्य तेलियों के लिए समायिक रहा होगा । जैसा कि पूर्व में ही उल्लिखित है कि ऐसे कार्य कुशल लोगों को एक खास तकनीक से संपूर्ति जनों को ही विश या वैश्य कहा जाता है जो सामाज के पोषण हेतु खद्यान्न उत्पन्न करते तथा आर्थिक व्यवस्थापन के लिए संसाधन एकत्रित करते थे । यहां तेली का अर्थ तिलहन पेरकर तेल निकालने एंव बेचने वाला व्यक्ति है ।
शास्त्रों में चक्रिन शब्द का प्रयोग हुआ हैं जो रथ के चक्के बनाने वाले घडा बनाने वाले कुंभार या तेल और खलो का व्यपार करने वाले के लिए प्रयुक्त हुआ है । यहां पुराण का उल्लेख करे जिसमें 13 वी शदी में ही कारीगर तथा कलविद जातियों के प्रति द्वेष भाव रखते थे । इसलिए । इस्सिलिए इन्हें संकर जाति कहा । जहां तक तेली जाति की बात है न ही इसके व्यवसाय को ताज्य माना है और नहीं उपेक्षित कार्यां में तेल कार्य को रखा है । इस प्रकारसे प्राचीन स्मृतियों पुराणों के गहुमत को ही मान्यता प्रदान करनी चाहिये और जिससे यह तनिक भी नहीं इलका कि तेली जाति निषिद्ध अथवा अन्तर्जातीय विवहों से उत्पन्न संतानों का समुह है । महाभारत के शांतिपर्व अध्याय 35 में एक लंबी सूची उन व्यक्तियों एवं व्यवसायों की मिलती है । जिनका भोजन दूषित बतलाया जाता है किन्तु इसमें । तेली की और कोई भी संकेत नहीं है । बारहवीं सदी के ग्रंथों मे भी ताज्य जातियों में तेली का उल्लेख नही है ।
अत:यह तो निष्कर्ष निकाला जता है कि तेली का स्थान आम तौर पर उंचा माना जाता था और सामान्यता तेली वेश्य जाति वर्ण के थे । अब यहां तेलकार अर्थात तेल का व्यपार करने वाले संबंधी मैं विचार संभव है । यह तो नश्चित है कि प्रारंभ से तेल दुर्लभ तरल पदार्थ रहा एवं पवित्रता में श्रेष्ठ रहा । इसलिए तेल का संग्रहण एवं वितरण व्यपार करने वालों की प्रतीष्ठा के साथ आर्थिक समृद्धि भी बनी । कालान्तर में कुछ शासकों ने तल को कर े रूप में भी स्वीकार किया । स्वयं तेलियों ने मंदिर में तेल दान किया । आंध्रप्रदेश के तेली सदैव समृद्ध रहे । तैलियों के विश्वसनीय व्यापारिक संघ, बैंक के प्रमाण भी मिले है । मनोरंक तथ्य लिए वहीं किया जो महाराष्ट्र के मराठों ने किया । तेलगू प्रदेश के तेली तो ब्राम्हणों आदि उच्च सामाजिक जाति को छोडकर किसी अन्य जातिओं का अन्नजल ग्रहण नही करते । ये गांव के मुखिया, साहूकार, एवं उदार चित्त वाले दानदाता तथा सहयोगी स्वभाव के सम्पन्न तेलकार थे । व्यापार में इनको अधिक श्री वृध्दि हुई थी । तेल गुड और नमक इनका प्रमुख व्यवसाय था । दक्षिण में तो तेली लोग सब प्रकार के व्यवसाय करते थे ओर मुनफा का कुछ प्रतिशत दान करते थे । इसमें तेल, इत्र घी, नमक, गुड और खली आदि की प्रमुखता है । रेवडी का निर्माण हमारा अविश्कार है । आज भी गांवो में तेली यपारी के साथ ये सामग्री मिलेगी। यहां समृद्धि वैभव तो हर स्थित में शासनाधिकारी बनने में सहयोग होते है अर्थात बुंदेलखंड, वघेलखंड तथा दक्षिण कोशल पर पांच सौ साल से अधिक तेलियों का शासन था । महान गुप्त वंश तो तेलियों का ही था ऐसा प्रमाणित मान्यता है । तेलिया भांडार, नालंदा का प्रवेश द्वार भगवान बुद्ध की विशालमूर्ती जिसे तेल स्नान कराया जाता है । निसंदेह बिहार, झारखंड, आदि ्रांतो में तेली जाति अधिक वैभव संपन्न हो गई थी । वे ही कलान्तर में बंगाल की और बढें कुछ लोग दक्षिण में व्यपारिक प्रतिस्पर्धा से श्रीवृदिप की । प्रभाव जताया और संपूर्ण भाारत में विशेषकर बिहार, बंगाल, छत्तीसगढ, आंध्र, केरल, कर्नाटक, महाराष्ट्र राजस्थान आदि क्षेत्रों में बहुसंख्याक के साथ राजनैतिक आर्थिक सामाजिक श्रेष्ठता प्राप्त की ।