प्राचीन समय में चित्रोत्पला(महानदी) के तट पर बसे पद्मावतीपुरी(राजिम नगर का पौराणिक नाम) में राजिम नाम की एक गरीब किन्तु कर्मठ और धार्मिक स्वभाव की तेलीन रहती थी। घानी द्वारा तेल निकालकर घूम घूमकर बेचना उनका मुख्य व्यवसाय था। नित्य की भांति एक दिन जब वह तेल बेचने जा रही थी तो जमीन में दबे किसी पत्थर से अचानक टकरा गई। पत्थर से टकराने पर उनके सिर पर रखा तेल का पात्र गिर पड़ा जिससे वह पात्र पूरी तरह खाली हो गया। अब माता राजिम को चिंता होने लगी कि घर जाकर क्या जवाब देगी। वह उस खाली पात्र को शिला पर रखकर ईश्वर से विनती करने लगी कि हे प्रभु मुझ दुखियारी पर कृपा करो। हिम्मत करके वह उठी और पात्र को उठाने जैसे ही वह देखी तो उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वह पात्र तेल से लबालब भरा हुआ था। माता राजिम को पुनः अचरज तब हुआ जब दिन भर तेल बेचने के बाद भी वह पात्र खाली नहीं हुआ। माता राजिम जब घर लौटी उसने यह सारी घटना अपने पति और सास को बतायी। माता राजिम की बातों पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ। अतः सत्यता जानने वे चलकर उसी स्थान पर पहुंचे। माता राजिम की सास ने एक खाली पात्र को उसी शिला पर रख दिया। माता राजिम ने मन ही मन प्रार्थना किया कि हे प्रभु मेरी और परीक्षा न लीजिए और माता ने अपने नेत्र बंद कर लिए। पुनः चमत्कार हुआ और खाली पात्र फिर से भर गया। उन्होनें उस चमत्कारी पत्थर को रात्रि को ही घर ले जाने की सोचकर खोदने लगे। जब खुदाई पूरी हुई तो यह साधारण सी दिखने वाली शिला भगवान विष्णु की चतुर्भुजी विग्रह के रूप में बाहर निकली। उन्होंने उस चमत्कारी मूर्ति को घर लाकर स्थापित कर दिया और नित्य पूजन करने लगे। भगवान विष्णु की कृपा से माता राजिम का परिवार धन-धान्य से भरपूर हो गया। एक दिन माता राजिम के पति ने उनसे कहा कि अब तो हम संपन्न हो गये हैं इसलिए अब तुम्हें तेल बेचने के लिए कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है। माता राजिम ने कहां कि जिस कार्य से हमारी स्थिति सुधरी और हमें प्रभु का अनुग्रह प्राप्त हुआ उस कार्य से हमें विमुख नहीं होना चाहिए।
उन्हीं दिनों वहां के राजा जगतपाल को स्वप्न में ईश्वरादेश हुआ कि मेरे लिए एक मंदिर का निर्माण कर मुझे वहां स्थापित करो। राजा ने वैसा ही किया। एक भव्य मंदिर का निर्माण हुआ। अब प्रश्न यह था कि इस मंदिर में प्रतिष्ठा के लिए प्रतिमा कहां से लाया जाये। तब तक माता राजिम कि भक्ति और उस चमत्कारी मूर्ति की बात सभी ओर फैल चुकी थी। कुछ लोगों ने राजा को सलाह दिया कि वे माता राजिम के पास से दिव्य मूर्ति को मंदिर में लाकर स्थापित करें। फिर क्या था राजा ने स्वर्ण मुद्राओं से भरा थाल लेकर माता राजिम के पास पहुंचे और इन स्वर्ण मुद्राओं के बदले प्रतिमा की याचना करने लगे। माता राजिम धर्म संकट में पड़ गयी। वो राजा के आदेश की अवहेलना कैसे करे तथा अपने प्राणों से प्रिय भगवान विष्णु की प्रतिमा अपने से दूर कैसे करे? माता राजिम ने कहा कि हे राजा। इन स्वर्ण मुद्राओंं का मैं क्या करूंगी। आप मेरे प्रभु को अपनी मंदिर में स्थापित कर सकते हैं परंतु मेरी एक शर्त है। राजा ने कहा कि बताइए। इस प्रतिमा के बदले आप जो चाहते हैं मैं पूरा करूंगा। माता राजिम ने कहा कि मेरे आराध्य के नाम के साथ मेरा भी नाम जुड़ जाये तो मैं अपने को धन्य समझूंगी। राजा सहर्ष तैयार हो गया। तब से भगवान विष्णु का वह प्रतिमा भगवान राजिम लोचन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कालांतर में इस नगर का नाम भी राजिम हो गया। कहा जाता है कि माता राजिम मंदिर के बाहर बैठकर एकटक राजिम लोचन की प्रतिमा को निहारती रहती थी। माता ने प्रभु के समक्ष ही समाधिस्थ अवस्था में अपना प्राणोत्सर्ग कर दिया। ऐसी धर्मनिष्ठ कर्तव्यपरायण भक्त शिरोमणी कुलदेवी माता राजिम के चरणों में कोटि कोटि नमन...