छत्तीसगढ़ी लोक कला मंच में एक मीठी आवाज के साथ गायन एवं अभिनय से सबका मन मोह लेने में। महारत हासिल व्यक्तित्व के धनी है श्री मिथलेश साहू। जिन्होंने बचपन की छोटी उम्र से लोक कला को अपने में अंदर समेटे हुए हैं। अपने अभिनय एवं गायन प्रतिभा का लोहा मनवा चुके श्री साह का नाम छत्तीसगढ़ के साथ-साथ अन्य प्रांतो में भी प्रसिद्ध है। लोक कला को अपने जीवन का महत्वपूर्ण अंग बनाकर पूरे जीवन समर्पित भाव से कार्य करते आ रहे।
स्वर्गीय दुलारसिह दाऊ जी के मंदराजी नाम पर एक कहानी है। बचपन में बड़े पेटवाला एक स्वस्थ दुलारसिंह आंगन में खेल रहा था। आंगन के ही तुलसी चौरा में भद्रासी की एक मूर्ति थी। नानाजी ने अपने हंसमुख स्वभाव के कारण बालक दुलारसिंह को मद्रासी कह दिया था और यही नाम प्रचलन में आकर बिगड़ते-बिगड़ते मुद्रासी से मंदराजी हो गया।
संगीत विरासत में: बचपन से ही बाल मित्रों के साथ तालाब के किनारे वृक्षों के छाव तले, खेत के मेढ़ में गुन गुनाते रहे, सुर मेसुर मिलाते रहे, यही सुर संगम, विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक आवाजों - स्वरों का रूपाकार, लोक संगीत की मिठास का नाम है खुमान साय । सन् 2016 में श्री खुमान साव को लोक कला के क्षेत्र में अनुकरणीय एवं सराहनीय कार्य के लिए राष्ट्रपति के हाथों पुरस्कृत भी हो चुका है। संपन्न कृषक जमीदार दाऊ श्री टीकमनाथ साव पिता श्री का स्नेहासिक्त पुत्र श्री खुमान लाल साय का जन्म 5 सितम्बर 1932 को ग्राम खुरसी टिकुले (चौकी यांधा रोड) जिला राजनांदगांव में हुआ।
कहते है हौसले बुलंद हो तो मौत भी घुटने टेक देती है और कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो कोई रूकावट इंसान का रास्ता नहीं रोक सकती। कुछ इसी तरह की दास्तां, धमतरी जिला के कुरूद में रहने वाले बंसत साह की है। जिन्होंने मौत को मात देकर पेन्सिल को अपनी जिंदगी बनाया और हाथ पैर से अपाहिज होने के बाद भी पेटिंग में महारत हालिस कर ली।
आज की इस भागमभाग दौड़ में लोग नई-नई सामानों को खरीद कर अपना शक एवं आवश्यकताओं की पूर्ति कर रहे हैं। ऐसे में जो समान उपयोग के लायक न रहे वह कचरे में तब्दील हो जाती हैं। यह जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया है। ऐसे में उसी उपयोग विहीन दस्त को एकदम नये स्वरूप में प्रस्तुत करके लोगों को बरबस ही इस कला से अपनी ओर अकर्षित करती है। ऐसे यक्तित्व की धनी सुश्री राजश्री साहू को इस कला में महारत हासिल हैं।