झारखण्ड की भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतीक दृष्टि कोन से अति प्राचिन वन-पठार का भूखण्ड है । जिसमें रामायण - महाभारत कालीन, कोल्ह, किरात, निशाद आदि जातियो का निवास रहा है । कोल्ह तेली सदा से इस भूखण्ड में रहते आ रहे है । यह क्षेत्र (मुख्य रूपसे झारखंंण्ड के राँची, लोहरदगा, गुमला, खूँटी और सिमडेगा जिला ) कोल्ह तेलियों की जन्मभुमि एवं कर्म भुमी रही है । ई. सन. से पुर्व अज्ञात काल से इस जाति (कबिला) के प्रधान का आवास की प्रमाण अभी भी पुरातत्त्वों तथा इतिहास में प्रापत है लोहरदगा जिला के कोराम्बे, गुमला जिला के हापामुनी, मे तेलियागढ के अवशेष उपलब्ध है । अति प्राचीन काल से निावास करने ाली यह जाती की वर्तमान स्थिती बहुत दयनीय है । इनकी सामाजिक, राजनीलक, आर्थिक एवं शैक्षणिक स्थिती इस प्रकार है :-
सामाजिक स्थिति :- तेली जाति की संख्या इस क्षेत्र में लगभग 25 % है सभी जतियों के साथ समरसत्ता पूर्वक आपस में सहिया - गोतिया का नाता निभाते हुए निवास करी है । सभी समुदायों के साथ हमारी नता एवं गाँव गवारी का रिश्ता है ।
तेली समाजातील व्यक्तीमत्वे डॉ. महेंद्र धावडे (एम.ए.बी.एड., पी.एच.डी.)
हे तेली समाजाचे गाढे संशोधक, तेली समाज : इतिहास व संस्कृती या विषयावर डॉक्टरे मिळवली याशिवाय त्या समाजावर सशोनात्मक अनेक गंथ लिहिले. त्यातील प्रमुख गुप्ता बिलाँग टू तेली कम्युनिटी, कॉन्ट्रीबिशन ऑफ तेली कम्युनटी टू बुद्धीझम, व्हॉट काँग्रेस अॅण्ड बीजेपी हॅव डन फॉर ओबीसी ? आदि सांप्रत कार्यकारी संपादक : उपराधानी साप्ताहिक, नागपुर, सहसंपादक : साहू वैश्य महासभा, दिल्ली राजर्षी शाहू महाराज पुरस्कार, राठोड तेली सन्मान प्राप्त.
पनवेलमध्ये प्रथमच तेली समाज मंडळातर्फे वधु-वर मेळावा आद्य क्रांतीवीर वासुदेव बळवंत फडके नाट्यगृहामध्ये दिनांक ३०/११/२०१४ रोजी (रविवार) मोठ्या उत्साहात पार पाडला. पनवेल येथील जय संताजी तेली समाज मंडळाचे अध्यक्ष श्री. सतीश वैरागी यांच्या अधिपत्याखाली कार्यक्रमाचे आयोजन करण्यात आले. विदर्भ, मराठवाडा, पश्चिम, उत्तर महाराष्ट्र तसेच कोकण विभागातील वधु-वर पालक व तेली संस्थेचे अध्यक्ष व कार्यकारणी मंडळ मेळाव्यात मोठ्या प्रमाणात सहभागी झाले.
भामाशाह का जन्म राजस्थान के मेवाड़राज्य के तेली परिवार में 29 अप्रैल, 1547 को हुआ था। इनके पिता भारमल थे, जिन्हें राणा साँगा नेरणथम्भौर के क़िले का क़िलेदार नियुक्तकिया था। भामाशाह बाल्यकाल सेही मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप के मित्र, सहयोगी और विश्वासपात्र सलाहकार रहे थे। अपरिग्रह को जीवन का मूलमंत्र मानकर संग्रहण की प्रवृत्ति से दूर रहने की चेतना जगानेमें भामाशाह सदैव अग्रणी थे। उनको मातृ-भूमि के प्रति अगाध प्रेम था। दानवीरता के लिए भामाशाहका नाम इतिहास में आज भी अमर है। धन-संपदा का दान भामाशाह का निष्ठापूर्ण सहयोग महाराणा प्रताप के जीवन में महत्त्वपूर्ण और निर्णायक साबित हुआ था ।
मेवाड़ के इस वृद्ध मंत्री ने अपने जीवन में काफ़ी सम्पत्ति अर्जितकी थी। मातृ-भूमि की रक्षा के लिए महाराणा प्रतापका सर्वस्व होम हो जाने केबाद भी उनके लक्ष्य को सर्वोपरि मानते हुए भामाशाह ने अपनी सम्पूर्ण धन-संपदा उन्हें अर्पित कर दी। वह अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति के साथ प्रताप की सेवा में आ उपस्थित हुए और उनसे मेवाड़ के उद्धार की याचना की । माना जाता है कि यहसम्पत्ति इतनी अधिक थी कि उससे 11 वर्षों तक 25,000 सैनिकों का खर्चा पूरा किया जा सकता था । महाराणा प्रताप 'हल्दीघाटी का युद्ध' ( 18 जून, 1576 ई.) हारचुके थे, लेकिन इसके बाद भी मुग़लों पर उनके आक्रमणजारी थे। धीरे- धीरे मेवाड़ का बहुतबड़ा इलाका महाराणा प्रताप के कब्जे में आनेलगा था।